महाभारत आदि पर्व अध्याय 76 श्लोक 38-51
षट्सप्ततितम (76) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
‘मेरे इतना कहते ही दानवों ने मुझे मार डाला और मेरे शरीर को चूर्ण करके कुत्ते-सियारों को बांट दिया। फिर वे सुख पूर्वक अपने घर चले गये। ‘भद्रे ! फिर महात्मा भार्गव ने जब विद्या का प्रयोग करके मुझे बुलाया है, तब किसी प्रकार से पूर्ण जीवन लाभ करके यहां तुम्हारे पास आ सका हूं’। इस प्रकार ब्राह्मण कन्या के पूछने पर कच ने उससे अपने मारे जाने की बात बतायी। तदनन्तर पुन: देवयानी ने एक दिन अकस्मात कच को फूल लाने के लिये कहा। विप्रवर कच इसके लिये वन में गये। वहां दानवों ने उन्हें देख लिया और फिर उन्हें पीसकर समुद्र के जल में घोल दिया। जब उसके विषय में विलम्ब हुआ, तब आचार्य कन्या ने पितासे पुन: यह बात बतायी। विप्रवर शुक्राचार्य ने कच का पुन: संजीविनी विद्या द्वारा आवाहन किया। इससे बृहस्पति पुत्र कच पुन: वहां आ पहुंचे और उनके साथ असुरों ने जो वर्ताव किया था, वह बताया। तत्पश्चात् असुरों ने तीसरी बार कच को मारकर आग में जलाया और उनकी जली हुई लाश का चूर्ण बनाकर मदिरा में मिला दिया तथा उसे ब्राह्मण शुक्राचार्य को ही पिला दिया। अब देवयानी पुन: अपने पिता से यह बात बोली- ‘पिताजी ! कच मेरे कहने पर प्रत्येक कार्य पूर्ण कर दिया करते हैं। आज मैंने उन्हें फूल लाने के लिये भेजा था, परंतु अभी तक वे दिखाई नहीं दिये। ‘तात ! जान पड़ता है वे मार दिये गये या मर गये। मैं आपसे सच कहती हूं, मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती हूं’। शुक्राचार्य ने कहा- बेटी ! बृहस्पति के पुत्र कच मर गये। मैंने विद्या से उन्हें कई बार जिलाया, तो भी वे इस प्रकार मार दिये जाते हैं, अब मैं क्या करूं। देवयानी ! तुम इस प्रकार शोक न करो, रोओ मत। तुम-जैसी शक्तिशालिनी स्त्री किसी मरने वाले के लिये शोक नहीं करती। तुम्हें तो वेद, ब्राह्मण, इन्द्र सहित सब देवता, वसुगण,अश्विनीकुमार, दैत्य तथा सम्पूर्ण जगत् के प्राणी मेरे प्रभाव से तीनों संध्याओं के समय मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हैं। अब उस ब्राह्मण को जिलाना असम्भव है। यदि जीवित हो जाय, तो फिर दैत्यों द्वारा मार डाला जायेगा (अत: उसे जिलाने से कोई लाभ नहीं है)। देवयानी बोली- पिताजी अत्यन्त वृद्ध महर्षि अंगिरा जिनके पितामह हैं, तपस्या के भण्डार बृहस्पति जिनके पिता हैं, जो ॠषि के पुत्रऔर ॠषि के ही पौत्र हैं; उन ब्रह्मचारी कच के लिये मैं कैसे शोक न करूं और कैसे न रोऊं? तात ! ये ब्रह्मचर्य पालन में रत थे, तपस्या ही उनका धन था। वे सदा ही सजग रहने वाले और कार्य करने में कुशल थे। इसलिये कच मुझे बहुत प्रिय थे। वे सदा मेरे मन के अनुरुप चलते थे। अब मैं भोजन का त्याग कर दूंगी और कच जिस मार्ग पर गये हैं, वहीं मैं भी चली जाऊंगी। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! देवयानी के कहने से उसके दु:ख से दुखी हुए महर्षि शुक्राचार्य ने कच को पुकारा और दैत्यों के प्रति कुपित होकर बोले- ‘इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि असुरलोग मुझसे द्वेष करते हैं। तभी तो यहां आये हुए मेरे शिष्यों को ये लोग मार डालते हैं।
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