महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 1-15
विंशत्यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
राजा जनक की परीक्षा करने के लिये आयी हुई सुलभा का उनके शरीर में प्रवेश करना,राजा जनक का उस पर दोषा रोपण करना एवं सुलभा का युक्तियों द्वारा निराकरण करते हुए राजा जनक को अज्ञानी बताना
युधिष्ठिरने पूछा—कुरूकुल राजर्षिशिरोमणि ! जहाँ बुद्धि का लय हो जाता है, उस मोक्ष तत्व को गृहस्था श्रमका त्याग बिना किये कौन पुरूष प्राप्त हुआ है, यह मुझे बताईये। पितामह ! यह मनुष्य शरीर जिस प्रकार स्थूल शरीर का त्याग करता है और जिस प्रकार स्थूल शरीर का आत्मा सूक्ष्म शरीर का त्याग करता है अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म—इन दोनों शरीर के अभिमान से जिस प्रकार रहित हो सकता है एवं उनके त्याग का जो स्वरूप है और जो मोक्ष का तत्व है, वह मझे बताइये। भीष्मजी ने कहा—भरतनन्दन ! इस विषय में जानकार मनुष्य जनक और सुलभा के संवादरूप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। प्राचीन काल में मिथिलापुरी के कोई एक राजा जनक हो गये हैं, जो धर्मध्वज नाम से प्रसिद्ध थे । उन्हें (ग्रहस्था श्रम में रहते हुए भी) संन्यास का जो सम्यग् ज्ञानरूप फल हे, वह प्राप्त हो गया था । उन्होंने वेद में, मोक्षशास्त्र में तथा अपने शास्त्र (दण्डनीति)- में भी बड़ा परिश्रम किया था। वे इन्द्रियों को एकाग्र करके इस वसुन्धरा का शासन करते थे। नरेश्वर ! वेदों के ज्ञाता विद्वान् पुरूष उनकी उस साधुवृत्ति का समाचार सुनकर उन्हीं के समान सज्जन होने की इच्छा करते थे। वह धर्मप्रधान युग का समय था। उन दिनों सुलभा नामवाली एक संन्यासिनी योगधर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त करके अकेली ही इस पृथ्वी पर विचरण करती थी। इस सम्पूर्ण जगत् में घूमती हुई सुलभा ने यत्र-तत्र अनेक स्थानों में त्रिदण्डी संन्यासियों के मुख से मोक्षतत्व की जानकारी के विषय में मिथिलापति राजा जनक की प्रशंसा सुनी। उनके द्वारा कही जाने वाली अत्यन्त सूक्ष्म पर ब्रह्मा-विषयक वार्ता दूसरों के मुख से सुनकर सुलभा के मन में यह संदेह हुआ कि पता नहीं जनक के सम्बन्ध में जो बातें सुनी जाती हैं, वे सत्य हैं या नहीं। यह संशय उत्पन्न होने पर उसके हृदय में राजा जनक के दर्शन का संकल्प उदित हुआ। उसने योग शक्ति से अपना पहला शरीर छोड़कर दूसरा परम सुन्दर रूप धारण कर लिया । अब उसका प्रत्येक अंग अनिन्द्य सौन्दर्य से प्रकाशित होने लगा । सुन्दर भौंहोंवाली वह कमलनयनी बाला बाणों के समान तीव्र गति से चलकर पल भर में विदेहदेश की राजधानी मिथिला में जा पहूँची । प्रचुर जनसमुदाय से भरी हुई उस रमणीय मिथिलानगरी में पहुँकर संन्यासिनी सुलभाने भिक्षा लेने के बहाने मिथिलानरेश का दर्शन किया। उसके परम सुकुमार शरीर और सौन्दर्य को देखकर राजा जनक आश्चर्य से चकित हो उठे और मन-ही-मन सोचने लगे, ‘यह कौन है, किसकी है अथवा कहाँ से आयी है ?’ तदनन्तर उसका स्वागत करके राजा ने उसे सुन्दर आसान समर्पित किया और पैर धुलाकर उसका यथोचित पूजन करने के पश्चात् उत्तमोत्तम अन्य देकर उसे तृप्त किया। भोजन करके संतुष्ट हुई संन्यासिनी सुलभाने सम्पूर्ण भाष्यवेत्ता विद्वानों के बीच में मन्त्रियों से घिरकर बैठे हुए राजा जनक से कुछ प्रश्न करने का विचार किया।
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