महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 138-150

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:४०, ३१ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==विंशत्‍यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षध...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

विंशत्‍यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 138-150 का हिन्दी अनुवाद

उस शय्या के भी आधे भाग पर राजा की स्‍त्री का अधिकार होता है; अत: इस प्रसंग से वह बहुत अल्‍प फलका ही भागी होता है। इसी प्रकार उपभोग, भोजन, आच्‍छादन तथा अन्‍यान्‍य परिमित विषयों के सेवन में और दुष्‍टों के दमन एवं शिष्‍ट पुरूषों के प्रति अनुग्रह के विषय में भी राजा सदा ही परतन्‍त्र है । इसी प्रकार वह बहुत थोड़े कार्यों में भी स्‍वतन्‍त्र नहीं है तो भी उनमें आसक्‍त रहता है । संधि और विग्रह करने में राजा को कहाँ स्‍वतन्‍त्रता प्राप्‍त है ? स्‍त्री-सहवास क्रीड़ा और विहार में भी उसे सदा परतन्‍त्रता रहती है । मन्त्रियों की सभा में बैठकर मन्‍त्रणा करते समय भी उसे कहाँ स्‍वतन्‍त्रता रहती है। राजा जिस समय दूसरों को कुछ करने की आज्ञा देता है, उस समय वहाँ उसकी स्‍वतन्‍त्रता बतायी जाती है; परंतु ऐसे अवसरों पर भी भिन्‍न-भिन्‍न क्षणों में राजासन पर बैठा हुआ नरेश सलाह देने वाले मन्त्रियों द्वारा अपनी इच्‍छा के विपरीत करने के लिए विवश कर दिया जाता है। वह सोना चाहता है, परंतु कार्यार्थी मनुष्‍यों द्वारा घिरा रहने के कारण सोने नहीं पाता । शय्यापर सोये हुए राजा को भी लोगों के अनुरोध से विवश होकर उठना पड़ता है। ‘महाराज ! स्‍नान कीजिये, तेल लगवाइये, पानी पीजिये, भोजन कीजिये, आहुति दीजिये, अग्निहोत्र में संलग्‍न होइये, अपनी कहिये और दूसरों की सुनिये।‘ इत्‍यादि बातें कह-कहकर दूसरे लोग राजा को वैसा करने के लिये विवश कर देते हैं। याचक मनुष्‍य सदा निकट आ-आकर राजा से धन की याचना करते हैं; किंतु जो लोग दान के श्रेष्‍ठ पात्र हैं, उनके लिये भी वह कुछ देने का साहस नहीं करता। अपने धन को सर्वथा सुरक्षित रखना चाहता है। यदि सबको धन का दान करे तो उसका खजाना ही खाली हो जाय और किसी को कुछ न दे तो सब के साथ वैर बढ़ जाय । उसके सामने क्षण-क्षण में ऐसे दोष उपस्थित होते हैं, जो उसे राज-काज से विरक्‍त कर देते हैं। विद्वानों, शूरवीरों तथा धनियों को भी जब वह एक स्‍थान पर जुटा हुआ देख लेता है, तब उसके मन में उनके प्रति शंका उत्पन्‍न हो जाती है । जहाँ भय का कोई कारण नहीं है, वहाँ भी राजा को भय होता है । जो लोग सदा उसके पास उठते-बैठते या सेवा में रहते हैं, उनसे भी वह सशंक बना रहता है। राजन् ! मैंने जिनका नाम लिया है, वे विद्वान् और शूरवीर आदि अपने प्रति राजा की आशंका देखकर सचमुच ही उसके प्रति दुर्भाव रखने लगते हैं और फिर उनसे राजा को जैसा भय प्राप्‍त होता है, उसको आप स्‍वयं ही समझ लें। जनक ! सब लोग अपने-अपने घर में राजा हैं और सभी अपने-अपने घर में गृहस्‍वामी हैं, सभी किसी को दण्‍ड देते और किसी पर अनुग्रह करते हैं; अत: वे सब लोग राजाओं के समान ही हैं। स्‍त्री, पुत्र शरीर, कोष, मित्र तथा संग्रह—ये सब वस्‍तुएँ राजाओं की भाँति दूसरों के पास भी साधारणतया रहते ही हैं । जिन कारणों से वह राजा कहलाता है, उन्‍हीं युक्तियों से दूसरे लोग भी उसके समान ही कहे जा सकते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।