महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 320 श्लोक 151-164

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विंशत्‍यधिकत्रिशततम (320) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 151-164 का हिन्दी अनुवाद

‘हाय ! देश नष्‍ट हो गया, सारा नगर आग से जल गया और वह प्रधान हाथी मर गया ।‘ यद्यपि ये सब बातें सब लोगों के लिये साधारण हैं—सब पर समान रूप से ये कष्‍ट प्राप्‍त होते हैं यथापि राजा अपने मिथ्‍याज्ञान के कारण केवल अपनी ही हानि समझकर संतप्‍त होता रहता है। इच्‍छा, द्वेष और भय जनित मानसिक दु:ख राजा को कभी नहीं छोड़ते हैं । सिरदर्द आदि शारीरिक रोग भी उसे सब ओर से नियन्‍त्रण में रखकर व्‍याकुल किये रहते हैं। वह नाना प्रकार के द्वन्‍द्वों से आहत और सब ओर से शंकित हो रातें गिनता हुआ अनेक शत्रुओं से भरे हुए राज्‍य का सेवन करता है। जिसमें सुख तो बहुत थोड़ा, किंतु दु:ख बहुत अधिक है, जो सर्वथा सारहीन है, जो घास-फूस में लगी आग के समान क्षणस्‍थायी ओर फेन तथा बुद्बुद के समान क्षणभंगुर है, ऐसे राज्‍य को कौन ग्रहण करेगा ? और ग्रहण कर लेने पर कौन शान्ति पा सकता है ? नरेश्‍वर ! आप जो इस नगर को, राष्‍ट्र को, सेना को तथा कोष और मन्त्रियों को भी ‘ये सब मेरे है’ ऐसा कहते हुए अपना मानते हैं, वह आपका भ्रम ही है । मैं पूछती हूँ, ये सब किसके हैं औ किसके नहीं हैं ? मित्र, मन्‍त्री, नगर, राष्‍ट्र, दण्‍ड, कोष और राजा- ये राज्‍य के सात अंग हैं । जैसे मेरे हाथ में त्रिदण्‍ड है, वैसे आपके हाथ में यह राज्‍य स्थित है । आपका सात अंगों वाला राज्‍य और मेरा त्रिदण्‍ड-ये दोनों परस्‍पर उत्‍कृष्‍ट गुणों से युक्‍त हैं । फिर इनमें से कौन किस गुण के कारण अधिक है ? राज्‍य के सात अंग हैं, उनमें सभी समय-समय पर अपनी विशिष्‍टता सिद्ध करते हैं । जिस अंग से जो कार्य सिद्ध होता है, उसके लिये उसीकी प्रधानता मानी जाती है। नृपश्रेष्‍ठ ! उक्‍त सात अंगों का समुदाय और तीन अन्‍य शक्तियाँ (प्रभु-शक्ति, उत्‍साह शक्ति और मन्‍त्रशक्ति)—ये सब मिलकर राज्‍य के दस वर्ग हैं । ये दसों वर्ग संगठित होकर राजा के समान ही राज्‍य का उपभोग करते हैं। जो राजा महान् उत्‍साही और क्षत्रिय-धर्म में तत्‍पर होता है, वह ‘कर’ के रूप में प्रजा की आय का दसवाँ भाग लेकर संतुष्‍ट हो जाता है तथा उससे भिन्‍न साधारण भूपाल दसवें भाग से कम लेकर भी संतोष कर लेते हैं। साधारण प्रजा न हो तो कोई राजा नहीं हो सकता । राजा न हो तो राज्‍य नहीं टिक सकता । राज्‍य न हो तो धर्म कैसे रह सकता है और धर्म न हो तो परमात्‍मा की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? यहाँ राजा और राज्‍य के लिये जो परम धर्म और परम पवित्र वस्‍तु है, उसे सुनिये । जिसकी पृथ्‍वी दक्षिणा-रूप में दे दी जाती है अर्थात् जो अपनी राज्‍यभूमिका दान कर देता है, वह अश्‍वमेध यज्ञ के पुण्‍य फलका भागी होता है। मिथिलानरेश ! जो राजा को दु:ख देने वाले हैं,ऐसे सैकड़ो और हजारों कर्म हैं यहाँ बता सकती हूँ। मेरी तो अपने ही शरीर में आसक्ति नहीं है, फिर दूसरे के शरीर में कैसे हो सकती है ? इस प्रकार योगयुक्‍त रहने वाली मुझे संन्‍यासिनी के प्रति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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