महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 325 श्लोक 19-35
पंचविंशत्यधिकत्रिशततम (325) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इस प्रकार यात्रा करते हुए वे थोड़े ही समय में धर्मराज महात्मा जनक द्वारा पालित विदेहप्रान्त में जा पहुँचे। वहाँ बहुत-से गाँव उनकी दृष्टि में आये, जहाँ अन्न,पानी तथा नाना प्रकार की खाद्य सामग्री प्रचुर मात्रा में मौजूद थी । छोटी-छोटी टोलियाँ तथा गोष्ठ (गौओं के रहने के स्थान) भी दृष्टिगोचर हुए, जो बडे़ समृद्धिशाली और बहुसंख्यक गो समुदायों से भरे हुए थे। सारे विदेहप्रान्त में सब ओर अगहनी धान की खेती लहलहा रही थी । वहाँ के निवासी धन-धान्य से सम्पन्न थे । उस देश में चारों ओर हंस और सारस निवास करते थे । कमलों से अलंकृत सैकड़ों सुन्दर सरोवर विदेह-राज्य की शोभा बढ़ा रहे थे। इस प्रकार समृद्धिशाली मनुष्यों द्वारा सेवित विदेह-देश को लाँघकर वे मिथिला के समृद्धिसम्पन्न रमणीय उपवन के पास जा पहुँचे। वह स्थान हाथी, घोडे़ और रथों से भरा था । असंख्य नर-नारी वहाँ आते-जाते दिखायी देते थे । अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले शुकदेवजी वह सब देखकर भी नहीं देखते हुए-से वहाँ से आगे बढ़ गये। मन से जिज्ञासा का भार वहन करते और उस ज्ञेय वस्तु का ही चिन्तन करते हुए आत्माराम प्रसन्नचित्त शुकदेव ने मिथिला में प्रवेश किया। नगर द्वार पर पहुँचकर वे नि:शंकभाव से उसके भीतर प्रवेश करने लगे । वहाँ द्वारपालों ने कठोर वाणीद्वारा उन्हें डाँटकर भीतर जाने से रोक दिया। शुकदेवजी वहीं खडे़ हो गये; किंतु उनके मन में किसी प्रकार का खेद या क्रोध नहीं हुआ । रास्ते की थकावट और सूर्य की धूप से उन्हे संताप नहीं पहुँचा था । भूख और प्यास उन्हें कष्ट नहीं दे सकी थी। वे उस धूप से न तो संतप्त होते थे, न ग्लानि का अनुभव करते थे और न धूप से हटकर छाया में ही जाते थे । उस समय उन द्वार पालों में से एक को अपने व्यवहार पर बड़ा दु:ख हुआ। उसने मध्याह्र कालीन तेजस्वी सूर्य की भाँति शुकदेवजी को चुपचाप खड़ा देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया और शास्त्रीय विधि के अनुसार उनकी यथोचित पूजा करके उन्हें राजभवन की दूसरी कक्षा में पहुँचा दिया। तात ! वहाँ एक जगह बैठकर महातेजस्वी शुकदेवजी मोक्ष का ही चिन्तन करने लगे । धूप हो या छाया, दोनों में उनकी समान दृष्टि थी। थोड़ी ही देर में राजमन्त्री हाथ जोड़े हुए वहाँ पधारे और उन्हें अपने साथ महल की तीसरी डयोढ़ी में ले गये ॥ वहाँ अन्त:पुर से सटा हुआ एक बहुत सुन्दर विशाल बगीचा था, जो चैत्ररथ वन के समान मनोहर जान पड़ता था। उसमें पृथक्-पृथक् जल-क्रीड़ा के लिये अनेक सुन्दर जलाशय बने हुए थे । वह रमणीय उपवन खिले हुए वृक्षों से सुशोभित होता था । उस उत्तम उद्यान का नाम था प्रमदावन । मन्त्री ने शुकदेवजी को उसके भीतर पहुँचा दिया। वहाँ उनके लिये सुन्दर आसन बताकर राजमन्त्री पुन: प्रमदावन से बाहर निकल आये । मन्त्री के जाते ही पचास प्रमुख वारांगनाएँ शुकदेवजी के पास दौड़ी आयीं। उनकी वेश-भूषा बड़ी मनोहारिणी थी । वे सब-की-सब देखने में परम सुन्दरी और नवयुवती थीं। वे सुरम्य कटिप्रदेश से सुशोभित थीं । उनके सुन्दर अंगों पर लाल रंग की महीन साड़ियां शोभा पा रही थीं । तपाये हुए सुवर्ण के आभूषण उनका सौन्दर्य बढ़ा रहे थे । वे बातचीत करने में कुशल और नाचने-गाने की कला में बड़ी प्रवीण थीं । उनका रूप अप्सराओं के समान था, वे मन्द मुसकान के साथ बातें करतीं और दूसरों के मन का भाव समझ लेती थीं । कामचर्या में कुशल और सम्पूर्ण कलाओं का विशेष ज्ञान रखने वाली थीं।
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