महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 340 श्लोक 18-38

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चत्वरिंशदधिकत्रिशततम (340) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चत्वरिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 18-38 का हिन्दी अनुवाद

अब मैं प्रसन्नता पूर्वक तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ। पूर्वकाल में मेरे पूछने पर वेदों का विस्तार करने वाले गुरुदेव महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास ने जो कुछ बताया था, वही मैं तुमसे कहूँगा। सुमन्तु, जैमिनि, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले पैल - इन तीनों के सिवा व्यासजी का चैथा शिष्य मैं ही हूँ और पाँचवें शिष्य उनके पुत्र शुकदेव माने गये हैं। ये पाँचों शिष्य इन्द्रियदमन एवं मनोनिग्रह से सम्पन्न, शीच तथा सदाचार से संयुक्त, क्रोधशून्य और जितेन्द्रिय हैं। अपनी सेवा में आये हुए इन सभी शिष्यों को व्यासजी ने चारों वेदों तथा पाँचवें वेद महाभारत का अध्ययन कराया।। सिद्धों और चारणों से सेवित गिरिवर मेरु के रमणीय शिखर पर वेदाभ्यास करते हुए हम सब शिष्यों के मन में किसी समय यही संदेह उत्पन्न हुआ, जिसे आज तुमने पूछा है। भारत ! व्यासजी ने हम शिष्यों को जो उत्तर दिया, उसे मैंने भी उन्हीं के मुख से सुना था। वही आज तुम्हें भी बताना है। अपने शिष्यों का संशययुक्त वचन सुनकर सबके अज्ञानान्धकार का निवारण करने वाले पाराशरनन्दन श्रीमान् व्यासजी ने यह बात कही -। ‘साधु पुरुषों में श्रेष्ठ शिष्यगण ! एक समय की बात है के मेंने भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान प्रापत करने के लिये अत्यन्त कठोर और बड़ी भारी तपस्या की’। ‘जब मैं इन्द्रियों को वश में करके अपनी तपस्या पूर्ण कर चुका, तब भगवान नारायण के कृपाप्रसाद से क्षीरसागर के तट पर मुझे मेरी इच्छा के अनुसार यह तीनों कालों का ज्ञान प्राप्त हुआ। अतः मैं तुम्हारे संदेह के निवारण के लिये उत्तम एवं न्यायोचित बात कहूँगा। तुम लोग ध्यान से ाुनो। ‘कल्प के आदि में जैसा वृतान्त घटित हुआ था और जिसे मैंने ज्ञानदृष्टि से देखा था, वह सब बता रहा हूँ। सांख्य और योग के विद्वान् जिन्हें परमातमा कहते हैं, वे ही अपने कर्म के प्रभाव से महापुरुष नाम धारण करते हैं। उन्हीं से अव्यक्त की उत्पत्ति हुई जिसे विद्वान् पुरुष प्रधान के नाम से जानते हैं। ‘जगत् की सृष्टि के लिये उन्हीं महापुरुषऔर अव्यक्त से व्यक्त की उत्पत्ति हुई, जिसे सम्पूर्ण लोकों में अनिरुद्ध एवं महान् आत्मा कहते हैं’। ‘व्यक्त भाव को प्राप्त हुए उन्हीं अनिरुद्ध ने पितामह ब्रह्मा की सृष्टि की। वे ब्रह्मा सम्पूर्ण तेजोमय हैं और उन्हीं को समष्टि अहंकार कहा गया है’। ‘पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और तेज - ये पाँच सूक्ष्म महाभूत अहंकार से उत्पन्न हुए हैं’। ‘अहंकार स्वरूप ब्रह्मा ने पन्चमहाभूतों की सुष्टि करके फिर उनके शब्द-स्पर्श आदि गुणों का निर्माण किया। उन भूतों से जो मूर्तिमान् प्राणी उत्पन्न हुए उनके नाम सुनो’। ‘मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु, महात्मा वसिष्ठ और स्वायम्भुव मनु’। ‘इन आठों को प्रकृति जानना चाहिये, जिनमें सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं। लोकपितामह ब्रह्मा ने सम्पूर्ण लोकों के जीवन-निर्वाह के लिये वेद-वेदांग और यज्ञांगों से युक्त यज्ञों की सृष्टि की है। पूर्वोक्त आठ प्रकृतियों से यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है’। ‘ब्रह्माजी के रोष से रुद्र का प्रादुर्भाव हुआ है। उन रुद्र ने स्वयं ही दस अन्य रुद्रों की भी सृष्टि कर ली है। इस प्रकार ये ग्यारह रुद्र हैं, जो विकारपुरुष माने गये हैं’ ‘वे ग्यारह रुद्र, आठ प्रकृति और समस्त देवर्षिगण, जो लोकरक्षा के लिए उत्पन्न हुए थे, ब्रह्माजी की सेवा में उपस्थित हुए। (और इस प्रकार बोले- )


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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