महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 1-12

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द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था का वर्णन, ब्राह्मणों की महिमा बताने वाली अनेक प्रकार की संक्षिप्त कथाओं का उल्लेख, भगवन्नामों के हेतु तथा रुद्र के साथ होने वाले युद्ध में नारायण की विजय

अर्जुन ने पूछा - मधुसूदन ! अग्नि और सोम पूर्वकाल में एकयोनि में कैसे हो गये ? मेरे मन में यह संदेह उत्पन्न हुआ है। आप इसका निवारण कीजिये।

श्रीभगवान बोले - पाण्डुनन्दन ! कुन्तीकुमार ! अपने तेज के उद्भव का प्राचीन बृतान्त मैं तुम्हें हर्षपूर्वक बताऊँगा। तुम एकचित होकर मुझसे सुनो। एक सहस्त्र चतुर्युग बीत जाने पर सम्पूर्ण लोकों के लिये प्रलयकाल आ पहुँचा था। समसत भूतों का अव्यक्त में लय हो गया था। स्थावर-जंगम सभी प्राणी विलीन हो गये थे। पृथ्वी, तेज और वायु का कहीं पता नहीं था। चारों ओर घोर अन्धकार छा रहा था तथा समस्त संसार एकार्णव के जल में निमग्न हो चुका था। सब ओर केवल जल-ही-जल सिथत था। दूसरा कोई तत्त्व नहीं दिखाई देता था, मानो एकमात्र द्वितीय ब्रह्मअपनी ही महिमा में प्रतिष्ठित हो। उस समय न रात थी, न दिन। न सत् था न असत्। न व्यक्त था और न अव्यक्त की ही स्थिति थी। स अवस्था में नारायण के गुणों का आश्रय लेकर रहने वाले उस अजर, अमर, इन्द्रियरहित, आग्राहा, असम्भव, सत्यस्वरूप, हिंसारहित, सुन्दर, नाना प्रकार की विशेषप्रवृत्तियों के हेतुभूत, वैररहित, अक्षय, अमर, जगरहित, निराकार, सर्वव्यापी तथा पर्वकर्ता सत्त्व से अविनाशी सनातन पुरुष हरि का प्रादुर्भाव हुआ। इस विषय में श्रुति का दृष्टान्त भी है। उस प्रलयकाल में न दिन था न रात थी, न सत् था न असत् था, केवल तम ही सामने था। वहीं सर्वरूप हो रहा था। वही विश्वात्मा की रात्रि है। इस प्रकार श्रुति का अर्थ कहना और समझना चाहिये। उस समय उस मायाविशिष्ट ईश्वर से प्रकट हुए उस ब्रह्मयोनि पुरुष से जब ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ, तब उस पुरुष ने प्रजासृष्टि की इच्छा से अपने नेत्रों द्वारा अग्नि और सोम को उत्पन्न किया। इस प्रकार भौतिकसर्ग की सृष्टि हो जाने पर प्रजा की उत्पत्ति के समय क्रमशः ब्रह्म और क्षत्र का प्रादुर्भाव हुआ। जो सोम है, वही ब्रह्म है और जो ब्रह्म है वही ब्राह्मण है। जो अग्नि है, वही क्ष या क्षत्रिय जाति है। क्षत्रिय से ब्राह्मण जाति अधिक प्रबल है। यदि कहो, कैसे , तो इसका उत्तर यह है कि ब्राह्मण की यह प्रबलता का गुण सब लोगों को प्रत्यक्ष है। यथा ब्राह्मण से बढ़कर कोई प्राणी पहले उत्पन्न नहीं हुआ। जो ब्राह्मण के मुख में भोजन देता है, वह मानो प्रत्वलित अग्नि में आहुति प्रदान करता है। यही सोचकर मैं ऐसा करता हूँ। ब्रह्मा ने भूतों की सृष्टि की और सम्पूर्ण भूतों को यथास्थान स्थापित करके वे तीनों लोकों को धारण करते हैं। यह मन्त्रवाक्य भी इसी बात का समर्थक है। अग्ने ! तुम यज्ञों के होता तथा सम्पूर्ण देवताओं, मनुष्यों और सारे जगत् के हितैषी हो। इस विषय में यह दृष्टान्त भी है - हे अग्निदेव ! तुम सम्पूर्ण यज्ञों के होता हो। समस्त देवताओं तथा मनुष्यों सहित जगत् के हिर्तषी हो। अग्निदेव यज्ञों के होता और कर्ता हैं। वे अग्निदेव ब्राह्मण हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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