महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 13-25

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द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद

क्योंकि मन्त्रों के बिना हवन नहीं होता और पुरुष के बिना तपस्या सम्भव नहीं होती। हविष्ययुक्त मन्त्रों के सम्बन्ध में देवताओं, मनुष्यों और ऋषियों की पूजा होती है; इसलिये हे अग्निदेव ! तुम होता नियुक्त किये गये हो। मनुष्यों में जो होता के अधिकारी हैं, वे ब्राह्मण के ही हैं; क्योंकि उसी के लिये यज्ञ कराने का विधान है। द्विजातियों में जो क्षत्रिय और वैश्य ह, उन्हें यज्ञ कराने का अधिकार नहीं है; इसलिये अग्निस्वरूप ब्राह्मण ही यज्ञों का भार वहन करते हैं। वे यज्ञ देवताओं का तृप्त बनाते हैं। शतपथब्राह्मण में भी ब्राह्मण के मुख में आहुति देने की बात कही गयी है। जो विद्वान ब्राह्मण के मुखरूपी अग्नि में अन्न की आहुति देता है, वह मानो प्रज्वलित अग्नि में होम करता है। इस प्राकर ब्राह्मण अग्निस्वरूप हैं। विद्वान् ब्राह्मण अग्नि की आराधना करते हैं। अग्निदेव विष्णु हैं। वे समस्त प्राणियों के भीतर प्रवेश करके उनके प्राणों को धारण करते हैं। इसके सिवा इस विषय में सनत्कुमारजी के द्वारा गाये हुए श्लोक भी उपलब्ध होते हैं। सबके आदिकारण ब्रह्माजी ने (जो ब्राह्मण ही हैं) पहले निर्मल विश्व की सृष्टि की थी। ब्रह्म ही जिनकी उत्पत्ति के स्थान हैं, वे अमर देवता ब्राह्मणों की वेदध्वनि से ही स्वर्ग लोक को जाते हैं। जैसे छींका दूध, दही आदि को धारण करता है, उसी प्रकार ब्राह्मणों की बुद्धि, वाक्य, कर्म, श्रद्धा, तप और वचनामृत पृथ्वी और स्वर्ग को धारण करते हैं।। सत्य से बढ़कर दूसरा धर्म नहीं है। माता के समान कोई दूसरा गुरु नहीं है तथा ब्राह्मणों से बढ़कर इहलोक और परलोक में कल्याण करने वाला और कोई नहीं है। जिनके राज्य में ब्राह्मणों के लिये कोई आजीविका न हो उन राजाओं की सवारी, बैल और घोड़े नहीं रहते; दूसरों को देने के लिये उनके यहाँ दही-दूध के मटके नहीं मथे जाते हैं तथा वे अपनी मर्यादा से भ्रष्ट होकर लुटेरे हो जाते हैं। वेद, पुराण और इतिहास के प्रमाण से यह सिद्ध है कि ब्राह्मणों की उत्पत्ति भगवान नारायण के मुख से हुई है; अतः वे ब्राह्मण सर्वात्मा, सर्वकर्ता और सर्वभावस्वरूप हैं।

संयमकाल में सबके हितैषी, वरदाता, देवाधिदेव ब्रह्माजी के द्वारा सबसे पहले ब्राह्मण उत्पन्न हुए। फिर ब्राह्मणों से शेष वर्णों का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रकार ब्राह्मण देवताओं और असुरों से भी श्रेष्ठ हैं। पूर्वकाल में मैंने स्वयं ही ब्रह्मारूप होकर उन ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। देवता, असुर और महर्षि आदि जो भूतविशेष हैं, उन्हें ब्राह्मणों ने ही उनके अधिकार पर स्थापित किया और उनके द्वारा अपराध होने पर उन्हें दण्ड दिया। अहल्या पर बलात्कार करने के कारण गौतम के शाप से इन्द्र को हरिश्मश्रु (हरी दाड़ी-मूछों से युक्त) होना पड़ा था तथा विश्वामित्र के शाप से इन्द्र को अपना अण्डकोष खो देना पडत्रा और उनके भेड़े के अण्डकोष जोड़े गये। अश्विनीकुमारों के लिये नियत यज्ञ भाग का निषेष करने के लिये वज्र उठाये हुए इन्द्र की दोनों भुजाओं को महर्षि च्यवन ने स्तम्भित कर दिया था। इसी प्रकार दक्ष प्रजापति ने रुद्र द्वारा किये गये अपने यज्ञ के विध्वंस से कुपित हो बड़ी भारी तपस्या की और रुद्रदेव के ललाट में एक तीसरा नेत्र-चिन्ह प्रकअ कर दिया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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