महाभारत विराट पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-15

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पन्चविंश (25) अध्याय: विराट पर्व (कीचकवध पर्व))

महाभारत: विराट पर्व पन्चविंश अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

दुर्योधन के पास उसके गुप्तचरों का आना और उनका पाण्डवों के विषय में कुछ पता न लगा, यह बताकर कीचकवध का वृत्तान्त सुनाना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन् ! कीचक के मारे जाने पर शत्रुवीरों का वध करने वाले राजा विराट पुरोहित और मन्त्रियों सहित बहुत दुखी हुए।। नरेश्वर ! भाइयों सहित कीचक का वध होने से सब लोग इसको बड़ी भारी दुर्घटना या दुःसाहस का काम मानकर अलग-अलग आश्चर्य में पड़े रहे। उस नगर तथा राष्ट्र में झुंड के झुंड मनुष्य एकत्र हो जाते और उनमें इस तरह की बातें होने लगती थीं- ‘महाबली कीचक अपनी शूरवीरता के कारण राजा विराट को बहुत प्रिय था। ‘उसने विपक्षी दलों की बहुत-सी सेनाओं का संहार किया था, किंतु उसकी बुद्धि बड़ी खोटी थी। व िपरायी स्त्रियों पर बलात्कार करने वाला पापात्मा और दुष्ट था; इसीलिये गन्धर्वों द्वारा मारा गया। महाराज जनमेजय ! शत्रुओं की सेना का संहार करने वाले दुर्धर्ष वीर कीचक के बारे में देश-विदेश के लोग ऐसी ही बातें किया करते थे। इधर अज्ञातवास की अवस्था में पाण्डवों का पता लगाने के लिये दुर्योधन ने जो बाहर के देशों में घूमने वाले गुप्तचर लगा रक्खे थे, वे अनेक ग्राम, राष्ट्र और नगरों में उन्हें ढूंढकर, जैसा वे देख सकते थे पता लगा सकते थे अथवा जिन जिन देशों में छा-बीन कर सकते थे, उन सबमें उसी प्रकार देखभाल करके अपना काम पूरा करके पुनः हस्तिनापुर में लौट आये। वहाँ वे धृतराष्ट्र कुरुनन्दन दुर्योधन से मिले, जो द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, महात्मा भीष्म अपने सम्पूर्ण भाई तथा महारथी त्रिगर्तों के साथ राजसभा में बैठा था। उससे मिलकर उन गुप्तचरों ने यों कहा। गुप्तचर बोले- नरेन्द्र ! हमने उस विशाल वन में पाण्डवों की खोज के लिये महान् प्रयत्न जारी रक्खा है। मृगों से भरे हुए निर्जन वन में, जो अनेकानेक वृक्षों और लताओं से व्याप्त, विविध लताओं की बहुलता एवं विसतार से विलसित तथा नाना गुल्मों से समावृत है, घूमकर वहाँ के विभिन्न स्थानों में अनेक प्रकार से उनके पदचिन्ह हम ढूंढते रहे हैं तथापि वे सुदृढ़ पराक्रमी कुन्तीकुमार किस मार्ग से कहाँ गये ? यह नहीं जान सके। महाराज ! हमने पर्वतों के ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर, भिनन-भिन्न देशों में, जनसमूह से भ्सरे हुए स्थानों में तथा तराई के गाँवों, बाजारों और नगरों में भी उनकी बहुत खोज की, परंतु कहीं भी पाण्डवों का पता नहीं लगा। नरश्रेष्ठ ! आपका कल्याण हो। सम्भव है, वे सर्वथा नष्ट हो गये हों। रथियों में श्रेष्ठ नरोत्तम ! हमने रथियों के मार्ग पर भी उनका अन्वेषण किया है, किंतु वे कहाँ गये और कहाँ रहते हैं ? इसका पता हमें नहीं लगा। मानवेन्द्र ! कुछ काल तक हम लोग सारथियों के पीछे लगे रहे और अच्छी तरह खोज करके हमने एक यथार्थ बात का ठीक-ठीक पता लगा लिया है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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