महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-15

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-15 का हिन्दी अनुवाद

उस शरीर के रूप, रंग और माप भी पहले शरीर के ही समान होते हैं । उसमें प्रविष्‍ट होने पर जीव को कोई देख नहीं पाता। देहधारियों का अन्‍तरात्‍मा जीव आठ अंगों से युक्‍त होकर यमलोक की यात्रा करता है । वह शरीर काटने, टुकड़े – टुकड़े करने, जलाने अथवा मारने से नष्‍ट नहीं होता। यमराज की आज्ञा से नाना प्रकार के भयंकर रूपधारी अत्‍यन्‍त क्रोधी और दुर्धुर्ष यमदूत प्रचण्‍ड हथियार लिये आते हैं और जीव को जबरदस्‍ती पकड़कर ले जाते हैं। उस समय जीव स्‍त्री - पुत्रादि के स्‍नेह – बन्‍धन में आबद्ध रहता है । जब विवश हुआ वह ले जाया जाता है, तब उसके किये हुए पाप – पुण्‍य उसके पीछे – पीछे जातें हैं। उस समय उसके बन्‍धु – बान्‍धव दु:ख से पीड़ित होकर करुणा जनक स्‍वर में विलाप करने लगते हैं तो भी वह सबकी ओर से निरपेक्ष हो समस्‍त बन्‍धु - बान्‍धवों को छोड़कर चल देता है। माता, पिता, भाई, मामा, स्‍त्री, पुत्र और मित्र रोते रह जातें हैं, उनका साथ छूट जाता है। उनके नेत्र और मुख आंसुओं से भीगे होते हैं। उनकी दशा बड़ी दयनीय हो जाती है, फिर भी वह जीव उन्‍हें दिखायी नही पड़ता । वह अपना शरीर छोड़कर वायू रूप हो चल देता है। वह पाप कर्म करने वालों का मार्ग अन्‍धकार से भरा है और उसका कहीं पार नहीं दिखायी देता। वह मार्ग बड़ा भयंकर, तमोमय, दुस्‍तर, दुर्गम और अन्‍त तक दु:ख – ही – दुख देने वाला है। यमराज के अधीन रहने वाले देवता, असुर और मनुष्‍य आदि जो भी जीव पृथ्‍वी पर हैं, वे स्‍त्री, पुरुष अथवा नपुंसक हों अथवा गर्भ में स्‍थित हों, उन सबको एक दिन उस महान् पथ की यात्रा करनी ही पड़ती है। पूर्वाह्ण हो या पराह्ण, संध्‍या का समय हो या रात्रि का, आदि रात हो या सबेरा हो गया हो, वहां की यात्रा सदा खुली ही रहती है। उपर्युक्‍त सभी प्राणी दुर्धर्ष, उग्र शासन करने वाले प्रचण्‍ड यमदूतों के द्वारा विवश होकर मार खाते हुए यमलोक जाते हैं। यमलोक के पथ पर कहीं डर कर, कहीं पागल होकर, कहीं ठोकर खाकर और कहीं वेदना से आर्त होकर रोते – चिल्‍लाते हुए चलना पड़ता है। यमदूतों की डांट सुनकर जीव उद्विग्‍न हो जाते हैं और भय से विह्वल हो थर – थर कांपने लगते हैं । दूतों की मार खाकर शरीर में बेतरह पीड़ा होती है तो भी उनकी फटकार सुनते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। धर्महीन पुरुषों को काट, पत्‍थर, शिला, डंडे, जलती लकड़ी, चाबुक और अंकुश की मार खाते हुए यमपुरी को जाना पड़ता है। जो दूसरे जीवों की हत्‍या करते हैं, उन्‍हें इतनी पीड़ा दी जाती है कि वे आर्त होकर छटपटाने, कराहने तथा जोर – जोर से चिल्‍लाने लगते हैं और उसी स्‍थित में उन्‍हें गिरते – पड़ते चलना पड़ता है। चलते समय उनके ऊपर शक्‍ति, भिन्‍दिपाल, शंकु, तोमर, बाण और त्रिशूल की मार पड़ती है। कुत्‍ते, बाघ, भेड़िये और कौवे उन्‍हें चारों ओर से नोचते हैं। मांस काटने वाले राक्षस भी उन्‍हें पीड़ा पहुंचाते हैं। जो लोग मांस खाते हैं उन्‍हें उसे मार्ग में चलते समय भैंसे, मृग, सुअर और चितकबरे हरिन चोट पहुंचाते और उनके मांस काटकर खाया करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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