महाभारत वन पर्व अध्याय 276 श्लोक 1-16

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षट्सप्‍तत्‍यधिकद्विशततम (276) अध्‍याय: वन पर्व( रामोपाख्‍यान पर्व )

महाभारत: वन पर्व: षट्सप्‍तत्‍यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाकर रावण के अत्‍याचार से बचाने के लिये प्रार्थना करना तथा ब्रह्माजी की आज्ञा से देवताओं का रीछ और वानर योनि में सन्‍तान


मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन् ! तत्‍पश्‍चात् रावण से कष्‍ट पाये हुए ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा सिद्वगण अग्निदेवको आगे करके ब्रह्माजीकी शरण में गये ।अग्निदेव बोले-भगवन् आपने पहले जो वरदान देकर विश्रवाके पुत्र महाबली रावणको अवध्‍यकर दिया है, वह महाबलवान् राक्षस अब संसारकी समस्‍त प्रजाको अनेक प्रकारसे सता रहा है; अत: आपही उसके भयसे हमारी रक्षा कीजिये आपके सिवा हमारा कोई दूसरा रक्षक नहीं है । ब्रह्माजीने कहा-अग्रे ! देवता या असुर उसे युद्धमें नहीं जीत सकते । उसके विनाशके लिये जो आवश्‍यक कार्य था, वह कर दिया गया । अब सब प्रकारसे उस दुष्‍टका दमन हो जायगा । उस राक्षसके निग्रहके लिये मैनें चतुर्भुज भगवान् विष्‍णुसे अनुरोध किया था । मेरी प्रार्थनासे वे भगवान् भूतलपर जन्‍म ले चुके हैं । वे योद्धाओंमें श्रेष्‍ठ हैं; अत: वे ही रावणके दमनका कार्य करेंगें । मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-राजन् ! तदनन्‍तर ब्रह्माजीने उन देवताओं के समीप ही इन्‍द्रसे कहा-‘तुम समस्‍त देवताओंके साथ भूतलपर जन्‍म ग्रहण करो । ‘वहां रीछों और वानरोंकी स्त्रियोंसे ऐसे वीर पुत्रको उत्‍पन्‍न करो, जो इच्‍छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ, बलवान तथा भूतलपर अवतीर्ण हुए भगवान् विष्‍णुके योग्‍य सहायक हों’ । तदनन्‍तर देवता, गन्‍धर्व और नाग अपने – अपने अंश एवं अंशांशसे इस पृथ्‍वीपर अवतीर्ण होनेके लिये परस्‍पर परामर्श करने लगे । फिर वरदायक देवता ब्रह्माजीनें उन सबके सामने ही दुन्‍दुभी नाम वाली गन्‍धर्वीको आज्ञा दी कि ‘तुम भी देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये भूतल पर जाओ । पितामहकी बात सुनकर गन्‍धर्वी दुन्‍दुभी मनुष्‍य लोकमें आकर मन्‍थरा नामसे प्रसिद्ध कुबडी दासी हुई । इन्‍द्र आदि समस्‍त श्रेष्‍ठ देवता भी वानरों तथा रीक्षोंकी उत्‍तम स्त्रियोंसे संतान उत्‍पन्‍त्र करने लगे वे सब वानर और रीछ यश तथा बलमें अपने पिता देताओंके समान ही हुए । वे पर्वतोंके शिखर तोड़ ड़ालनेकी शक्ति रखते थे एवं शाल ( साखू ) और ताल ( ताड़ ) के वृक्ष तथा पत्‍थरोंकी चट्टानें ही उनके आयुध थे । उनका शरीर वज्रके समान दुर्भेद्य और सुदृढ़ था । वे सभी राशि-राशि बलके आश्रय थे । उनका बल और पराक्रम इच्‍छाके अनुसार प्रकट होता था । वे सबके सब युद्ध करनेकी कलामें दक्ष थे। उनके शरीरमें दस हजार हाथियोंके समान बल था । तेज चलनेमें वायुके वेगको लजा देते थे । उनका कोई घर-बार नहीं था; जहां इच्‍छा होती, वहीं रह जाते थे । उनमेंसे कुछ लोग केवल वनोंमें ही रहते थे । इस प्रकार सारी व्‍यवस्‍था करके लोकस्‍त्रष्‍टा भगवान् ब्रह्माने मन्‍थरा बनी हुई दुन्‍दुभीको जो-जो काम जैसे-जैसे करना था, वह सब समझा दिया । वह मन के समान वेग से चलने वाली थी। उसने ब्रह्माजी की बातों को अच्छी तरह समझकर उसके अनुसार ही कार्य किया। वह इधर-उधर घूम-फिरकर वैर की आग प्रत्वलित करने में लग गयी।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत रामोख्यान पर्व में वानर आदि की उत्पत्ति से सम्बन्धित दो सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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