महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 347 श्लोक 20-37

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सप्तचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (347) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद

उस समय वे नाना गुणों से उत्पन्न होने वाली जगत् की अद्भुत सृष्टि के विषय में विचार करने लगे। सृष्टि के विषय में विचार करते हुए उन्हें अपने गुण महान् (महत्तत्त्व) का स्मरण हो आया। उससे अहंकार प्रकअ हुआ। वह अहंकारही चार मुखों वाले ब्रह्माजी हैं, जो सम्पूर्ण लोकाके के पितामह और भगवान हिरण्यगर्भ के नाम से प्रसिद्ध है। ब्रह्माण्ड में कमल में अनिरुद्ध (अहंकार) से कमल नयन ब्रह्मा का उस समय प्रादुर्भाव हुआ था। वे अद्भुत रूपधारी एवं तेजस्वी सनातन भगवान ब्रह्मा सहस्त्र दल कमल पर विराजमान हो जब इधर-उधर दृष्टि डालने लगे, तब उन्हें समसत जगत् जलमय दिखायी दिया। तब ब्रह्माजी सत्त्वगुण में स्थित होकर प्राणियों की सृष्टि में प्रवृत्त हुए। वे जिस कमल पर बैइे थे, उसका पत्ता सूर्य के समान देदीप्यमान होता था। उसपर पहले से ही भगवान नारायण की प्रेरणा से जल की बूँदें पड़ी थीं, जो रजोगुण और तमोगुण की प्रतीक थीं। आदि-अनंत से रहित भगवान अच्युत ने उन दोनों बूँदों की ओर देखा। उनमें से एक बूँद भगवान की दृष्टि पडत्रे ही उनकी प्रेरणा से तमोमय मधु नामक दैत्य के आकार में परिणत हो गयी। उस दैत्य का रंग मधु के समान था और उसकी कान्ति ब़ी सुन्दर थी। जल की दूसरी बूँद, जसे कुद कड़ी थी, नारायण की आज्ञा से रजोगुण से उत्पन्न कैटभ नामक दैत्य के रूप में प्रकट हुई।। तमोगुण और रजोगुण से युक्त वे दानों श्रेष्ठ दैत्य मधु और कैटभ बड़े बलवान थे। वे अपने हाथों में गदा लिये कमलनाल का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ने लगे। ऊपर जाकर उन्होंने कमल-पुष्प के आसन पर बैठकर सृष्टि-रचना में प्रवृत्त हुए अमित तेजस्वी ब्रह्माजी की देखा एवं उनके पास ही मनोहर रूप धारण किये हुए चारों वेदों को देखा। उन विशानकाय श्रेश्ठ असुरों ने उस समय वेदों पर दृष्टि पडत्रते ही उन्हें ब्रह्माजी के देखते-देखते सहसा हर लिया। सनातन वेदों का अपहरण करके वे दोनों श्रेष्ठ दानव उत्तर-पूर्ववर्ती महासागर में घुस गये और तुरंत रसातल में जा पहुँचे। वेदों का अपहरण हो जाने पर ब्रह्माजी को बड़ा खेद हुआ। उनपर मोह छा गया। वे वेदों से वंचित होकर मन-ही-मन परमात्मा से इस प्रकार कहने लगे।

ब्रह्मा बोले - भगवन् ! वेद ही मेरे उत्तम नेत्र हैं, वेद ही मेरे परम बल हैं। वेद ही मेरे परम आश्रय तथा वेद ही मेरे सर्वोत्तम उपास्य देव हैं। मेरे वे सभी वेद आज दो दानवों ने बलपूर्वक यहाँ से छीन लिये हैं। अब वेदों के बिना मेरे लिये सम्पूर्ण लोक अन्धकारमय हो गये हैं। मैंवेदों के बिना संसार की उत्तम सृष्टि कैसे कर सकता हूँ , अहो ! आज वेदों के नष्ट होने से मुझ पर बड़ा भारी दुःख आ पड़ा है, जो मेरे शोमग्न हृदय को दुःयह पीड़ा दे रहा है। आज शोक के समुद्र में डूबे हुए मुझ असहाय का यहाँ से कौन उद्धार करेगा ? उन नष्ट हुए वेदों को कौन लायेगा ? मैं किसको इतना प्रिय हूँ, जो मेरी ऐसी सहायता करेगा ? नृपश्रेष्ठ ऐसी बातें कहते हुए ब्रह्माजी के मन में भगवान श्रीहरि की स्तुति करने का विचार उत्पन्न हुआ। बुद्धिमानों में अग्रगण्य नरेश ! तब भगवान ब्रह्मा ने हाथ जोड़कर उत्तम एवं जपने योग्य स्त्रोत का गान आरम्भ किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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