महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-23
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य होता है, वह सारा पुण्य गोकर्ण मात्र भूमि का दान करने से प्राप्त हो जाता है। युधिष्ठिर ने कहा – देवेश्वर कृष्ण ! आपको नमस्कार है । सुरेश्वर ! मुझे गोकर्ण मात्र भूमि का दान ठीक–ठीक माप बतलाने की कृपा कीजिये। श्री भगवान बोले -नृपश्रेष्ठ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ! गोकर्ण मात्र भमि का प्रमाण सुनो । पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण चारों ओर तीस – तीस दण्ड नापने से जितनी भूमि होती है, उसको भूमि के तत्व को जानने वाले पुरुष गोकर्ण मात्र भूमि का माप बताते हैं। कुरुश्रेष्ठ ! जितनी भूमि में खुली हुई सौ गौएं बैलों और बछड़ों के साथ सुखपूर्वक रह सकें, उतनी भूमि को भी गोकर्ण कहते हैं। भूमि का दान करने वाले पुरुष के पास यमराज के दूत नहीं फटकने पाते । मृत्यु के दण्ड, दारूण कुम्भीपाक, भयानक वरूणपाश, रौरव आदि नरक, वैतरणी नदी और कठोर यम – यातनाएं भी भूमिदान करने वालों को नहीं सतातीं। चित्रगुप्त, कलि, काल, कृतान्त मृत्यु और साक्षात् भगवान यम भी भूमि का दान करने वाले का आदर करते हैं। राजन् ! रुद्र, प्रजापति, इन्द्र, देवता, ऋषिगण और स्वयं मैं – ये सभी प्रसन्न होकर भूमि दाता का आदर करते हैं। नरश्रेष्ठ ! जिसके कुटुम्ब के लोग जीविका के अभाव से दुर्बल हो गये हों, जिसकी गौएं और घोड़े भी दुबले–पतले दिखाई देते हों तथा जो सदा अतिथि सत्कार करने वाला हो, ऐसे ब्राह्मण को भूमि दान देना चाहिये ; क्योंकि वह परलोक के लिये खजाना है। नरेश्वर ! जिसके कुटुम्बीजन कष्ट पा रहें हों – ऐसे श्रोत्रिय, अग्निहोत्री, व्रतधारी, एवं दरिद्र ब्राह्मण को भूमि देनी चाहिये। जैसे धाय अपना दूध पिलाकर पुत्र का पालन पोषण करती है, उसी प्रकार दान में दी हुई भूमि दाता पर अनुग्रह करती है। जैसे गौ अपना दूध पिलाकर बछड़े का पालन करती है, वैसे ही सर्वगुण सम्पन्न भूमि अपने दाता का कल्याण करती है। भूपाल ! जिस प्रकार जल से सीचें हुए बीज अंकुरित होते हैं, वैसे ही भूमि दाता के मनोरथ प्रतिदिन पूर्ण होते रहते हैं। जैसे सूर्य का तेज समस्त अन्धकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार यहां भूमि दान मनुष्य के सम्पूर्ण पापों का नाश कर डालता है। कुरुश्रेष्ठ ! जो भूमि दान की प्रतिज्ञा करके नहीं देता अथवा देकर फिर छीन लेता है, उसे वरुण के पाश से बांधकर पीब और रक्त से भरे हुए नरक–कुण्ड में डाला जाता है। जो अपने या दूसरे की दी हुई भूमि का अपनहरण करता है, उसके लिये नरक से उद्धार पाने का कोई उपाय नहीं है। जो श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भूमि का दान करके उसी से अपनी जीविका चलाता है, वह दुष्टात्मा मूर्ख इक्कीस नरकों में गिरता है। फिर नरकों से निकलकर कुत्तों की योनि को प्राप्त होता है। जिसमें हल से जोतकर बीज बो दिये गये हों तथा जहां हरी–भरी खेती लहलहा रही हो, ऐसी भूमि दरिद्र ब्राह्मण को देनी चाहिये अथवा जहां जल का सुभीता हो, वह भूमि दान में देनी चाहिये। राजन् ! इस प्रकार प्रसन्नचित्त होकर मनुष्य यदि पृथ्वी का दान करे तो वह सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओं को प्राप्त करता है।
« पीछे | आगे » |