महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-24
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
बहुत–से राजाओं ने इस पृथ्वी को दान में दिया है और बहुत से अभी दे रहे हैं । यह भूमि जब जिसके अधिकार में रहती है, उस समय वही उसे दान में देता है और उसके फल का भागी होता है। जिसकी जीविका क्षीण और गौएं दुर्बल हो गयी हैं, ऐसे दरिद्र ब्राह्मण को जो चांदी दान करता है, वह सब पापों से छूटकर और सुन्दर रूप धारण करके पूर्णिमा के चन्द्रमा के प्रकाश के समान प्रकाशित विमान के द्वारा इच्छानुसार स्वर्ग लोक में महिमान्वित होता है। फिर पुण्य का क्षय होने पर समयानुसार वहां से उतरकर इस लोक में सम्पूर्ण लोगों से पूजित, धनवान, महायशस्वी और महापराक्रमी राजा होता है। जो श्रोत्रिय ब्राह्मण को – विशेषत: दरिद्र को तिल का पर्वत दान करता है, उसको जो फल मिलता है ; वह सुनो। पाण्डुनन्दन ! दस हजार वृषोत्सर्ग का जो पुण्य फल कहा गया है, उस पुण्य को वह प्राप्त करके तत्काल निष्पाप हो जाता है। जैसे सांप केंचुल को छोड़कर शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार तिल – दान करने वाला मनुष्य पापों से मुक्त हो शुद्ध हो जाता है। तिल के ढेर का दान करने वाला स्वर्ण भूषित दिव्य विमान पर आरूढ़ हो पितृलोक में सम्मानित होता है। वह तिल का दान करने वाला मनुष्य महान यश और इच्छानुकूल रूप धारण करने की शक्ति पाकर साठ हजार वर्षों तक पितृ लोक में सुख और आन्नद भोगता है। महाबाहो ! तिल, गौ, सोना, अन्न, कन्या और पृथ्वी-इतने पदार्थ यदि ब्राह्मण को दिये जायं तो ये दाता का उद्धार कर देते हैं। सदाचार सम्पन्न, अग्निहोत्री तथा अलोलुप ब्राह्मण की विधिवत पूजा करनी चाहिये ; क्योंकि वह परलोक में दान देने वाला खजाना है। जो ब्राह्मण वेद का विद्वान, अग्निहोत्र परायण, जितेन्द्रीय, शूद्र के अन्न से दूर रहने वाला और दरिद्र हो, उसकी यत्न पूर्वक पूजा करनी चाहिये। नित्य अग्निहोत्र करने वाला वेदवेत्ता ब्राह्मण दान का सदा पात्र है । जिसके पेट में शूद्र का अन्न नहीं जाता, वह पात्रों में भी उत्तम पात्र है। जो वेद सम्पन्न पात्र है, जो तमोपय पात्र है और जो किसी का भी भोजन न करने वाला पात्र है, वह पवित्र पात्र दाता का उद्धार कर देता है। जो ब्राह्मण नित्य स्वाध्याय में संलग्न रहते हैं, जिनकी इन्द्रियां वश में हैं, जो सदा ही पंच महायज्ञ करने में तत्पर रहते हैं, वे पूजा करने वाले का उद्धार कर देते हैं। जो क्षमाशील, संयतचित्त और जितेन्द्रिय हैं, जिनके कान वेदवाणी से भरे हुए हैं, जो प्राणियों की हत्या से निवृत्त हो चुके हैं और जिनको दान लेने में संकोच होता है, ऐसे गृहस्थ ब्राह्मण दाता का उद्धार करने में समर्थ हैं। जो प्रतिदिन तर्पण करने वाला, सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहने वाला, नित्यप्रति स्वाध्यायपरायण, शूद्र का अन्न न खाने वाला, ऋतुकाल में ही अपनी स्त्री से समागम करने वाला और विधिपूर्वक अग्निहोत्र करने वाला हो, वह ब्राह्मण दूसरों को तारने में समर्थ होता है। जो ब्राह्मण मेरा भक्त, मुझमें अनुराग रखने वाला, मेरे भजन में परायण और मुझे ही कर्मफलों को अर्पण करने वाला है, वह ब्राह्मण अवश्य संसार – समुद्र से तार सकता है।
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