महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-35

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:३५, २ अगस्त २०१५ का अवतरण ('==द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म प...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-35 का हिन्दी अनुवाद

‘जो मनुष्‍य अग्‍निहोत्र के होम के लिये अमित तेजस्‍वी एवं धनहीन श्रोत्रिय ब्राह्मण को प्रयत्‍नपूर्वक कपिला गौ दान में देता है, वह उस दान से शुद्धचित्‍त होकर मेरे परमधाम में प्रतिष्‍ठित होता है। ‘जो मनुष्‍य कपिला के सींग और खुरों में सोना मढ़ाकर उसे विषुवयोग में अथवा उत्‍तरायण – दक्षिणायन के आरम्‍भ में दान करता है, उसे अश्‍वमेध – यज्ञ का फल मिलता है तथा उस पुण्‍य के प्रभाव से वह मेरे लोक में जाता है। ‘एक हजार अग्‍निष्‍टोम के समान एक वाजपेय - यज्ञ होता है । एक हजार वाजपेय के समान एक अश्‍वमेध होता है और एक हजार अश्‍वमेध के समान एक राजसूय – यज्ञ होता है। ‘कुरुश्रेष्‍ठ पाण्‍डव ! जो मनुष्‍य शास्‍त्रोक्‍त विधि से एक हजार कपिला गौओं का दान करता है, वह राजसूय – यज्ञ का फल पाकर मेरे परमधाम में प्रतिष्‍ठित होता है ; उसे पुन: इस लोक में नहीं लौटना पड़ता। ‘दान में हुई गौ अपने विभिन्‍न गुणों द्वारा कामधेनु बनकर परलोक में दाता के पास पहुंचती है । वह अपने कर्मों से बंधकर घोर अन्‍धकारपूर्ण नरक में गिरते हुए मनुष्‍य का उसी प्रकार उद्धार कर देती है, जैसे वायु के सहारे से चलती हुई नाव मनुष्‍य को महासागर में डूबने ने बचाती है। ‘जैसे मन्‍त्र के साथ दी हुई ओषधि प्रयोग करते ही मनुष्‍य के रोगों का नाश कर देती है, उसी प्रकार सुपात्र को दी हुई कपिला गौ मनुष्‍य सब पापों को तत्‍काल नष्‍ट कर डालती है। ‘जैसे सांप केंचुल छोड़कर नये स्‍वरूप को धारण करता है, वैसे ही पुरुष कपिला गौ के दान से पाप – मुक्‍त होकर अत्‍यन्‍त शोभा को प्राप्‍त होता है। ‘जैसे प्रज्‍जवलित दीपक घर में फैले हुए अन्‍धकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार मनुष्‍य कपिला गौ का दान करके अपने भीतर छिपे हुए पाप को भी निकाल देता है। ‘जो प्रतिदिन अग्‍निहोत्र करने वाला, अतिथि का प्रेमी, शूद्र के अन्‍न से दूर रहनेवाला, जितेन्‍द्रीय, सत्‍यवादी तथा स्‍वाध्‍यायपरायण हो, उसे दी हुई गौ परलोक में दाता का अवश्‍य उद्धार करती है’। वैशम्‍पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! इस प्रकार परम पुण्‍यमय कपिला गौ के उततम दान का वर्णन सुनकर धर्मपुत्र युधिष्‍ठिर का मन बहुत प्रसन्‍न हुआ और उन्‍होंने भगवान् श्रीकृष्‍ण से पुन:इस प्रकार प्रश्‍न किया - ‘देवदेवेश्‍वर ! जो कपिला गौ ब्राह्मण को दान में दी जाती है, उसके सम्‍पूर्ण अंगों में किस प्रकार रहते हैं ? ‘सुरश्रेष्‍ठ ! आपने जो दस प्रकार की कपिला गौएं बतलायी हैं, उनमें कितनी कपिलाएं पुण्‍यमयी मानी जाती है’ ? युधिष्‍ठिर के ऐसा कहने पर उस समय सत्‍यवादी भगवान् श्रीकृष्‍ण गोपनीय से भी अत्‍यन्‍त गोपनीय कथा कहने लगे – राजन् ! मैं परम पवित्र, गोपनीय एवं उत्‍तम धर्म का वर्णन करता हूं, सुनो। ‘जो मनुष्‍य सबेरे उठकर मुझ में भक्‍ति रखते हुए परम पुण्‍यमय उत्‍तम कपिला – दान के माहात्‍मय का पाठ करता है, उसके पुण्‍य का फल सुनो। ‘युधिष्‍ठिर ! इस अध्‍याय का पाठ करने वाला मनुष्‍य रात्रि में मन, वाणी अथवा क्रिया द्वारा जान – बूझकर किये हुए सब पापों से मुक्‍त हो जाता है। ‘जो श्राद्ध काल में इस अध्‍याय का पाठ करते हुए ब्राह्मणों को भोजन आदि से तृप्‍त करता है, उसके पितर अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर अमृत भोज करते हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।