महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 348 श्लोक 1-19

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अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (348) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

सात्वत-धर्म की उपदेश-परम्परा तथा भगवान के प्रति ऐकानितक भाव की महिमा

जनमेजय ने कहा - ब्रह्मन् ! भगवान अनन्य भाव से भजन करने वाले सभी भक्तों को प्रसन्न करते और उनकी विधिवत् की हुई पूजा को स्वयं ग्रहण करते हैं; यह कितने आनन्द की बात है। संसार में जिन लोगों की वासनाएँ दग्ध हो गयी हैं और जो पुण्य-पाप से रहित हो गये हैं, उन्हें परम्परा से जो गति प्राप्त होती है, उसका भी आपने वर्णन किया है।। जो भगवान के अनन्य भक्त हैं, वे साधु पुरुष अनिरुद्ध, प्रद्युम्न और संकर्षण की अपेक्षा न रखकर वासुदेव संज्ञक चैथी गति में पहुँचकर भगवान पुरुषोत्तम एवं उनके परमपद को प्राप्त कर लेते हैं। निश्चय ही यह अनन्यभाव से भगवान का भजनरूप धर्म श्रेष्ठ एवं श्रीनारायण को परम प्रिय है; क्योंकि इसका आश्रय लेने वाले भक्तजन उक्त तीन गतियों को प्राप्त न होकर सीधे चैथी गति में पहुँचकर अविनाशी श्रीहरि को प्राप्त कर लेते हैं। जो ब्राह्मण उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का भलीभाँति आश्रय ले उनका विधिपूर्वक स्वाध्याय करते हैं तथा जो सन्यास धर्म का पालन करने वाले हैं, इन सकसे उत्तम गति उन्हीं को प्राप्त होती है, जो भगवान के अनन्य भक्त होत हैं। भगवन् ! इस भक्तिरूप धर्म का किस देवता अथवा ऋषि ने उपदेश किया है ? अनन्य भक्तों की जीवनचर्या क्या है ? और वह कब से प्रचलित हुई ? मेरे इस संशय का निवारण कीजिये। इस विषय को सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा हो रही है।

वैशम्पायनजी ने कहा - राजन् ! जिस समय कौरव और पाण्डवों के सेनाएँ युद्ध के लिये आमने-सामने डटी हुई थीं और अर्जुन युद्ध में अनमने हो सहे थे, उस समय स्वयं भगवान ने दन्हें गीता में इस धर्म का उपदेश दिया। मैंने पहले तुमसे गति और अगति का स्वरूप भी बताया था। यह धर्म गहन तथा अजितात्मा पुरुषों के लिये दुर्लभ है। राजन् ! यह धर्म सामवेद के समान है। प्राचीनकाल के सत्ययुग से ही यह प्रचलित हुआ है। स्वयं जगदीश्वर भगवान नारायण ही इस धर्म को धारण करते हैं। महाराज ! कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने ऋषियों के बीच में महाभाग नारदजी से यही विषय पूछा था। उस समय श्रीकृष्ण और भीष्म भी इस विषय को सुन रहे थे। नृपश्रेष्ठ ! मेरे गुरु व्यासजी ने और मैंने भी यह विषय कहा था; परंतु वहाँ नारदजी ने उस विषय का जैसा वर्णन किया था, उसे बताता हूँ, सुनो। भूपाल ! सृष्टि के आदि में जब भगवान नारायण के मुख से ब्रह्माजी का मानसिक जनम हुआ था, उस समय साक्षात् नारायण ने उन्हें इस धर्म का उपदेश दिया था। भरतनन्दन ! नारायण ने उस धर्म से देवताओं और पितरों का पूजनादि कर्म किया था। फिर फेनप ऋषियों ने उस धर्म को ग्रहण किया। फेनपों से वैखानसों ने उस णर्म को उपलब्ध किया। उनसे सोम ने उसे ग्रहण किया। तदनन्तर वह धर्म फिर लुप्त हो गया। नरेश्वर ! जब ब्रह्माजी कानेत्रजनित द्वितीय जन्म हुआ, तब उन्होंने सोम से उस नारायण-स्वरूप धर्म को सुना था। राजन् ! ब्रह्माजी ने रुद्र को इसका उपदेश दिया। नरेश्वर ! तत्पश्चात् योगनिष्ठ रुद्र ने पूर्वकाल के कृतयुग में सम्पूर्ण बालािल्य ऋषियों को इस धर्म से अवगत कराया; तदनन्तर भगवान विष्णु की माया से वह धर्म फिर लुप्त हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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