महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-44
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-44 का हिन्दी अनुवाद
ब्राह्मण को उचित है कि वह मौन होकर पृथ्वी या दिशाओं की ओर न देखते हुए विधिवत भोजन करे, किसी को अपना जूठा न दे। कभी भी नतो बहुत अधिक और न कम ही भोजन करे । प्रतिदिन उतना ही अन्न खाय, जिससे अपने को कष्ट न हो। जिस भोजन में बाल या कोई कीड़ा पड़ा हो, जिसे मुंह से फूंककर ठंडा किया गया हो, उसको अखाद्य समझना चाहिये । ऐसे अन्न को भोजन कर लेने पर चान्द्रायण-व्रत का आचरण करना चाहिये। भोजन के स्थान से उठ जाने के बाद जिसे फिर छू दिया गया हो, जो पैर से छू गया या लांघ दिया गया हो, वह राक्षस के खाने योग्य अन्न है; ऐसा समझकर उसका त्याग कर देना चाहिये। यदि आचमन किये बिना ही भोजन करने वाला द्विज भोजन के आसन से उठ जाय तो तुरंत स्नान करना चाहिये, अन्यथा वह अपवित्र ही रहता है। युधिष्ठिर ने पूछा- भगवन ! गौओं के आगे घास की मुट्ठी डालने का विधान और तिल का माहात्मय क्या है तथा गन्ने से चन्द्रमा की उत्तपत्ति किस प्रकार हुई है- यह बताने की कृपा कीजिये। श्रीभगवान ने कहा- राजन् ! बैलों को जगत का पिता समझना चाहिये और गौएं संसार की माताएं हैं, उनकी पूजा करने से सम्पूर्ण पितरों और देवताओं की पूजा हो जाती है। जिनके गोबर से लीपने पर सभा-भवन, पौंसल, घर और देवमन्दिर भी शुद्ध हो जाते हैं, उन गौओं से बढ़कर और कौन प्राणी हो सकता है ? जो मनुष्य एक साल तक स्वयं भोजन करने के पहले प्रतिदिन दूसरे की गाय को मुट्ठी घास खिलाया करता है, उसको प्रत्येक समय गौ की सेवा करने का फल प्राप्त होता है। गोमाता के सामने घास रखकर इस प्रकार कहना चाहिये- ‘संसार की समस्त गौएं मेरी माताएं और सम्पूर्ण वृषभ मेरे पिता हैं । गोमाताओं ! मैंने तुम्हारी सेवा में यह घास की मुट्ठी अर्पण की है, इसे स्वीकार करो’। यह मंत्र पढ़कर अथवा गायत्री का उच्चारण करके एकाग्रचित्त से घास को अभिमन्त्रित करके गौ को खिला दे । ऐसा करने से जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है, उसे सुनो। उस पुरुष ने जान – बूझकर या अनजान में जो – जो पाप किये होते हैं, वह सब नष्ट हो जाते हैं तथा उसको कभी बुरे स्वपन्न नहीं दिखायी देते। तिल बड़े पवित्र और पापनाशक होते हैं, भगवान नारायण से उनकी उतपत्ति हुई है । इसलिये श्राद्ध में तिल की बड़ी प्रशंसा की गयी है और तिल का दान अत्यंत उत्तम दान बताया गया है। तिल दान करे, तिल भक्षण करे और सबेरे तिल का उबटन लगाकर स्नान करे तथा सदा ही अपने मुंह से ‘तिल – तिन का उच्चारण किया करे; क्योंकि तिल सब पापों को नष्ट करने वाले होते हैं। राजन् ! ब्राह्मणको स्वयं तिल पेरने कर मशीन में तिल डालकर तिल नहीं पेरना चाहिये । जो मोहवश स्वयं ही तिल पेरता है, वह रौरक नरक में पड़ता है। युधिष्ठिर ! चन्द्रमा इक्षु (गन्ने) – के वंश में उत्पन्न हुआ है और ब्राह्मण चन्द्रमा के वंश में उत्पन्न हुए हैं । इसलिये ब्राह्मण को कोल्हू में गन्ना नहीं पेरना चाहिये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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