महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-43
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
भोजन की विधि, गौओं को घास डालने का विधान और तिल का माहात्मय तथा ब्राह्मण के लिये तिल और गन्ना पेरने का निषेध
युधिष्ठिर ने कहा- देवाधिदेव मधुसूदन ! अन्न-दान का फल सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है, अब आप भोजन की विधि बताने की कृपा कीजिये। श्रीभगवान बोले- पाण्डुनन्दन ! द्विजातियों के भोजन का जो विधान है, उसे सुनो । श्रेष्ठ द्विज को उचित है कि वह स्नान करके पवित्र हो अग्निहोत्र करने के बाद शुद्ध और एकान्त स्थानों में बैठकर ब्राह्मण हो तो चौकोना, क्षत्रिय हो तो गोलाकार और वैश्य हो तो अर्धचन्द्राचार मण्डल बनावे। उसके बाद पैर धोकर उसी मण्डल में बिछे हुए शुद्ध आसन के ऊपर पूर्वाभिमुख होकर बैठ जाय और दोनों पैरों से अथवा एक पैर के द्वारा पृथ्वी का स्पर्श किये रहे। द्विज एक वस्त्र पहनकर तथा सारे शरीर को कपड़े से ढककर भी भोजन न करे । इसी प्रकार फूटे हुए बर्तन में तथा उल्टी पत्तल में भी भोजन करना निषिद्ध है। भोजन करने वाले पुरुष को चाहिये कि प्रसन्नचित्त होकर पहले अन्न को नमस्कार करे । अन्न के सिवा दूसरी ओर दृष्टि न डाले तथा भोजन करते समय परोसे हुए अन्न की निन्दा न करे। जिस अन्न की निन्दा की जाती है, उसे राक्षस खाते हैं ! भोजन आरम्भ करने से पहले हाथ में जल लेकर उसके द्वारा अन्न की प्रदक्षिणा करे। फिर मंत्र पढ़कर पृथक-पृथक पांचों प्राणों को अन्न की आहुति दे। राजन् ! प्राणों को आहुति देते समय स्थिर चित्त और सावधान होकर इस प्रकार प्राणों को आहुति दे जिससे जिव्हा को रस का ज्ञान न हो। पाण्डुनन्दन ! अन्न, अन्नाद और पांचों प्राणों के तत्व को जानकर जो प्राणाग्निहोत्र करता है, उसके द्वारा पंच वायुओं का यजन हो जाता है। इसके विपरीत भोजन करने वाला मूर्ख ब्राह्मण अन्न के द्वारा असुर, प्रेत और राक्षसों को ही तृप्त करता है। प्राणों को आहुति देने के पश्चात अपने मुख में पड़ने लायक एक-एक ग्रास अन्न उठाकर भोजन करे । जो ग्रास अपने मुख में जाने की अपेक्षा बड़ा होने के कारण एक बार में न खाया जा सके, उसमें से बचा हुआ ग्रास अपना उच्छिष्ट कहा जाता है। ग्रास के बचे हुए तथा मुंह से निकले हुए अन्न को अखाद्य समझे और उसे खा लेने पर चान्द्रायण-व्रत का आचरण करे। जो अपना झूठा खाता है तथा एक बार खाकर छोड़े हुए भोजन को फिर ग्रहण करता है, उसको चान्द्रायण, कृच्छ्र अथवा प्राजापत्य-व्रत का आचरण करना चाहिये। जो पापी स्त्री के भोजन किये हुए पात्र में भोजन करता है, स्त्री का झूठा खाता है तथा स्त्री के साथ एक बर्तन में भोजन करता है, वह मानो मदिरा पान करता है । तत्वदर्शी मुनियों ने उस पाप से छूटने का कोई प्रायश्चित्त ही नहीं देखा। यदि पानी पीते-पीते उसकी बूंद मुंह से निकलकर भोजन में गिर पड़े तो वह खाने योग्य नहीं रह जाता । जो उसे खा लेता है, उस पुरुष को चान्द्रायण-व्रत का आचरण करना चाहिये। पाण्डुनन्दन ! इसी प्रकार पीने से बचा हुआ पानी भी पुन: पीने के योग्य नहीं रहता। यदि कोई ब्राह्मण मोहवश उसको पी ले तो उसे चान्द्रायण-व्रत का आचरण करना चाहिये।
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