महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-54
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
जो मोहवश अपना झूठा दूसरे के भोजन में मिला देता है अथवा मोह के कारण दूसरों को देता है, उस ब्राह्मण को भी चान्द्रायण-व्रत का आचरण करना चाहिये। यदि द्विज तुम्बा और जिसमें केश पड़ा हो, ऐसा अन्न तथा प्याज, गाजर, छत्राक (कुकुरमुत्ते) और लहसुन को खा ले तो उसे चान्द्रायण-व्रत करना चाहिये। यदि ब्राह्मण रजस्वला स्त्री, कुत्ते अथवा चाण्डाल के द्वारा देखा हुआ अन्न खा ले तो उस ब्राह्मण को चान्द्रायण-व्रत का आचरण करना चाहिये। पाण्डुनन्दन ! पूर्वकाल में ऋषियों ने आत्मशुद्धि के लिये इस व्रतका आचरण किया था, यह सब प्राणियों को पवित्र करने वाला और पुण्यरूप बताया गया है। जो द्विज इस पूर्वोक्त पापनाशक व्रत का अनुष्ठान करता है, वह पवित्रात्मा तथा निर्मल सूर्य के समान तेजस्वी होकर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। युधिष्ठिर ने कहा- भगवन् ! आप सब प्राणियों के स्वामी, सबके द्वार नमस्कृत, शोभासम्पन्न और सर्वज्ञ हैं । अब आप मुझसे समस्त प्राणियों के लिये हितकारी धर्म का वर्णन कीजिये। श्री भगवान बोले-युधिष्ठिर ! जो धर्म दरिद्र मनुष्यों को भी स्वर्ग और सुख प्रदान करने वाला तथा समस्त पापों का नाश करने वाला है, उसका वर्णन करता हूं, सुनो। राजन् ! जो मनुष्य एक वर्ष तक प्रतिदिन एक समय भोजन करता है, ब्रह्मचारी रहता है, क्रोध को काबू में रखता है, जो नीचे सोता है और इन्द्रियों को वश में रखता है, जो स्नान करके पवित्र रहता है व्यग्र नहीं होता है, सत्य बोलता है, किसी के दोष नहीं देखता है और मुझ में चित्त लगाकर सदा मेरी पूजा में ही संलग्न रहता है, जो दोनों संध्याओं के समय एकाग्रचित्त होकर मुझसे सम्बन्ध रखने वाली गायत्री का जप करता है, ‘नमो ब्रह्मण्यदेवाय’ कहकर सदा मुझे प्रणाम किया करता है, पहले ब्राह्मण को भोजन के आसन पर बिठाकर भोजन कराने के पश्चात स्वयं मौन होकर जौ की लप्सी अथवा भिक्षान्न का भोजन कराता है तथा ‘नमोस्तु वासुउेवाय’ कहकर ब्राह्मण के चरणों में प्रणाम करता है; जो प्रत्येक मास समाप्त होने पर पवित्र ब्राह्मणों को भोजन कराता है और एक साल तक इस नियम का पालन करके ब्राह्मण को इस व्रत की दक्षिणा के रूप में माखन तथा तिल की गौ दान करता है तथा ब्राह्मण के हाथ से सुवर्णयुक्त जल लेकर अपने शरीर पर छिड़कता है, उसके पुण्य का फल बतलाता हूं, सुनो। उसके जान-बूझकर या अनजान में किये हुए दस जन्मों तक के पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं- इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। युधिष्ठिर ने कहा- भगवन् ! सब प्रकार के उपवासों में जो सबसे श्रेष्ठ, महान फल देने वाला और कल्याण का सर्वोत्तम साधन हो, उसका वर्णन करने की कृपा कीजिये। श्रीभगवान बोले- महाराज युधिष्ठिर ! तुम मेरे भक्त हो । जैसे पूर्व में मैंने नारद से कहा था, वैसे ही तुम्हें बतलाता हूं, सुनो। नरेश ! जो पुरुष स्नान आदि से पवित्र होकर मेरी पंचमी के दिन भक्तिपूर्वक उपवास करता है तथा तीनों समय मेरीपूजा में संलग्न रहता है, वह सम्पूर्ण यज्ञों का फल पाकर मेरे परम धाम में पगतिष्ठित होता है। नरेश्वर ! अमावस्या और पूर्णिमा-ये दोनों पर्व, दोनों पक्ष की द्वादशी तथा श्रवण-नक्षत्र-ये पांच तिथियां मेरी पंचमी कहलाती हैं । ये मुझे विशेष प्रिय हैं।
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