महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 19-36
एकोनषष्टित्तम (59) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
युधिष्ठिर! काम के अधीन हुए उन मनुष्यों पर क्रोध नामक शत्रु ने आक्रमण किया। क्रोध के वशीभूत होकर वे यह न जान सके कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य? राजेन्द्र! उन्होंने अगम्यागमन, वाच्य-अवाच्य, भक्ष्य-अभक्ष्य तथा दोष-अदोष कुछ भी नहीं छोडा। इस प्रकार मनुष्यलोक में धर्म का विप्लव हो जाने पर वेदों के स्वाध्यायका भी लोप हो गया। राजन्! व्ेदिक ज्ञान का लोप होने से यज्ञ आदि कर्मों का भी नाश हो गया। इस प्रकार जब वेद और धर्म का नाश होने लगा, तब देवताओं के मन में भय समा गया। पुरूषसिंह! वे भयभीत होकर ब्रह्माजी की शरण में गये। लोकपितामह भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करके दुख के वेग से पीडित हुए समस्त देवता उनसे हाथ जोडकर बोले-भगवन! मनुष्यलोक में लोभ, मोह आदि दूषित भावों ने सनातन वैदिक ज्ञान को विलुप्त कर डाला है; इसलिये हमें बडा भय हो रहा है। ईश्वर! तीनों लोकों के स्वामी परमेश्वर! वैदिक ज्ञान का लोप होने से यज्ञ-धर्म नष्ट हो गया। इससे हम सब देवता मनुष्यों के समान हो गये है। मनुष्य यज्ञ आदि में घी की आहुति देकर हमारे लिये ऊपर की ओर वर्षा करते थे और हम उनके लिये नीचे की ओर पानी बरसाते थे; परंतु अब उनके यज्ञकर्म का लोप हो जाने से हमारा जीवन संशय में पड गया है। पितामह! अब जिस उपाय से हमारा कल्याण हो सके, वह सोचिये। आपके प्रभाव से हमें जो दैवस्वभाव प्राप्त हुआ था, वह नष्ट हो रहा है। तब भगवान ब्रह्मा ने उन सब देवताओं से कहा- सुरश्रेष्ठगण! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। मैं तुम्हारे कल्याण का उपाय सोचूँगा। तदनन्तर ब्रह्माजी ने अपनी बुद्धि से एक लाख अध्यायों का एक ऐसा नीतिशास्त्र रचा, जिसमें धर्म, अर्थ और काम का विस्तारपूर्वक वर्णन है। जिसमें इन वर्गों का वर्णन हुआ है, वह प्रकरण त्रिवर्ग नाम से विख्यात है। चैथा वर्ग मोक्ष है; उसके प्रयोजन और गुण इन तीनों वर्गों से भिन्न है। मोक्ष का त्रिवर्ग दूसरा बताया गया है। उसमें सत्व, रज और तम की गणना है- दण्डजनित त्रिवर्ग उससे भिन्न है। स्थान, वृद्धि और क्षय - ये ही उसके भेद है ( अर्थात दण्ड से धनियों की स्थिति, धर्मात्माओं की वृद्धि और दुष्टों का विनाश होता है )। ब्रह्माजी के नीतिशास्त्र में आत्मा, देश, काल, उपाय, कार्य और सहायक - इन छः वर्गो का वर्णन है। ये छहों नीतिद्वारा संचालित होने पर उन्नति के कारण होते है। भरतश्रेष्ठ! उस ग्रन्थ में वेदत्रयी ( कर्मकाण्ड), आन्वीक्षिकी ( ज्ञानकाण्ड ), वार्ता ( कृषि गोरक्षा और वाणिज्य ) और दण्डनीति- इन विपुल विद्याओं का निरूपण किया गया है। ब्रह्माजी के उस नीतिशास्त्र में मन्त्रियों की रक्षा ( उन्हें कोई फोड न ले, इसके लिये सतर्कता ), प्रणिधि ( राजदूत ), राजपुत्र के लक्षण, गुप्तचरों के विचरण के विविध उपाय, विभिन्न स्थानों में विभिन्न प्रकार के गुप्तचरों की नियुक्ति, साम, दान, भेद, दण्ड और उपेक्षा- इन पाँचों उपायों का पूर्णरूप् से प्रतिपादन किया गया है। सब प्रकार की मन्त्रणा, भेदनीति के प्रयोग के प्रयोजन, मन्त्रणा में होने वाले भ्रम या उसके फूटने के भय तथा मन्त्रणा की सिद्धि और असिद्धि के फल का भी इस शास्त्र में वर्णन है।
« पीछे | आगे » |