महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-18

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एकोनषष्टित्तम (59) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व : एकोनषष्टित्तम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्माजी के नीतिशास्त्र का तथा राजा पृथु के चरित्र का वर्णन

वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! तदनन्तर दूसरे दिन सबेरे उठकर पाण्डव और यदुवंशी वीर पूर्वाह्नकाल के नित्यकर्म पूर्ण करने के अनन्तर नगराकार विशाल रथों पर सवार हो हस्तिनापुर से चल दिये। निष्पाप नरेश! कुरूक्षेत्र में जा रथियों में श्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म के पास पहुँचकर उनसे सुखपूर्वक रात बीतने का समाचार पूछकर व्यास आदि महर्षियों को प्रणाम करके उन सबके द्वारा अभिनन्दित हो वे पाण्डव और श्रीकृष्ण भीष्मजी को सब ओर से घेरकर उनके पास ही बैठ गये। तब महातेजस्वी राजा धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्मजी का विधिपूर्वक पूजन करके उनसे दोनों हाथ जोड़कर कहा। युधिष्ठिर बोले- शत्रुओं को संताप देने वाले भरतवंशी नरेश! लोक में जो यह राजा शब्द चल रहा है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? यह मुझे बताने की कृपा करें। जिसे हम राजा कहते है, वह सभी गुणों में दूसरों के समान ही है। उसके हाथ, बाँह और गर्दन भी औरों की ही भाँति है। बुद्धि और इन्द्रियाँ भी दूसरे लोगों के ही तुल्य है। उसके मन में भी दूसरे मनुष्यों के समान ही सुख-दुख का अनुभव होता है। मुँह, पेट, पीठ, वीर्य, हड्डी, मज्जा, मांस, रक्त, उच्छवास, निश्वास, प्राण, शरीर, जन्म और मरण आदि सभी बातें राजा में भी दूसरों के समान ही है। फिर वह विशिष्ट बुद्धि रखने वाले अनेक शूरवीरों पर अकेला ही कैसे अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है। अकेला होने पर भी वह शूरवीर एवं सत्पुरूषों से भरी हुई इस सारी पृथ्वी का कैसे पालन करता है और कैसे सम्पूर्ण जगत की प्रसन्नता चाहता है? यह निश्चित रूप से देखा जाता है कि एकमात्र राजा की प्रसन्नता से ही सारा जगत प्रसन्न होता है और उस एक के ही व्याकुल होने पर सब लोग व्याकुल हो जाते है। भरतश्रेष्ठ! इसका क्या कारण है? यह मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ। वक्ताओं में श्रेष्ठ पितामह! यह सारा रहस्य मुझे यथावत रूप से बताइये। प्रजानाथ! यह सारा जगत जो एक ही व्यक्ति को देवता के समान मानकर उसके सामने नतमस्तक हो जाता है, इसका कोई स्वल्प कारण नहीं हो सकता। भीष्मजी ने कहा- पुरूषसिंह! आदि सत्ययुग में जिस प्रकार राजा और राज्य की उत्पत्ति हुई, वह सारा वृत्तान्त तुम एकाग्र होकर सुनो। पहले न कोई राज्य था, न राजा, न दण्ड था और न दण्ड देने वाला, समस्त प्रजा धर्म के द्वारा ही एक दूसरे की रक्षा करती थी। भारत! सब मनुष्य धर्म के द्वारा परस्पर पालित और पोषित होते थे। कुछ दिनों के बाद सब लोग पारस्परिक संरक्षण के कार्य में महान कष्ट का अनुभव करने लगे; फिर उन सब पर मोह छा गया। नरश्रेष्ठ! जब सारे मनुष्य मोह के वशीभूत हो गये, तब कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से शून्य होने के कारण उनके धर्म का नाश हो गया। भरतभूषण! कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नष्ट हो जाने पर मोह के वशीभूत हुए सब मनुष्य लोभ के अधीन हो गये। फिर जो वस्तु उन्हें प्राप्त नहीं थी, उसे पाने का वे प्रयत्न करने लगे। प्रभो! इतने ही में वहाँ काम नामक दूसरे दोष ने उन्हें घेर लिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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