महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 232 श्लोक 1-12
द्वात्रिंशदधिद्विशततम (232) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
व्यासजी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति क्रम तथा युगधर्मो का उपदेश
व्यास जी कहते हैं – बेटा ! तेजोमय ब्रह्रा ही सबका बीज है, उसी से यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है । उस एक ही ब्रह्रा से स्थावर और जगंम दोनों की उत्पत्ति होती है । पहले कह आये हैं, ब्रह्राजी अपने दिन के आरम्भ में जागकर अविद्या (त्रिगुणात्मि का प्रकृति के) द्वारा सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करते हैं । सबसे पहले महत्तव प्रकट होता है ।उससे स्थूल सृष्टि का आधारभूत मन उत्पन्न होता है । उन मन की दूर तक गति है तथा वह अनेक प्रकारसे गमनागमन करता है । प्रार्थना और संशयवृत्तिशाली वह मन चैतन्य से संयुक्त होकर सम्पूर्ण पदार्थों को अभिभूत करके सात[१] मानस ऋषियों की सृष्टि करता है । फिर सृष्टि की इच्छा से प्रेरित होनेपर मन नाना प्रकार की सृष्टि करता है । उससे आकाश की उत्पत्ति होती है । आकाश का गुण ‘शब्द’ माना गया है । तत्पश्चात् जब आकाश में विकार होता है, तब उससे पवित्र और सम्पूर्ण गन्धों को वहन करनेवाले बलवान् वायुतत्व का आविर्भाव होता है ।उसका गुण ‘स्पर्श’ माना गया है । फिर वायु में भी विकार होता है और उससे प्रकाशपूर्ण अग्नि-तत्व प्रकट होता है । वह अग्नि तत्व चमचमाता हुआ एवं दीप्तिमान् है । उसका गुण ‘रूप’ बताया जाता है । फिर अग्नि तत्व में विकारआनेपर रसमय जल तत्व की उत्पत्ति होती है ।जल से गन्ध का वहन करनेवाली पृथ्वीका प्रादुर्भाव होता है ।इस प्रकार पचंमहाभूतों की सृष्टि बतायी जाती है । पीछे प्रकट हुए वायु आदि भूत उत्तरोतर अपने पूर्ववर्ती सभी भूतों के गुण धारण करते हैं । इन सब भूतों में से जो भूत जितने समय तक जिस प्रकार रहता है, उसके गुण भी उतने ही समयतक रहते हैं । यदि कुछ मनुष्य जल में गन्ध पाकर अयोग्यतावश यह कहने लगे कि यह जल का ही गुण है तो उनका वह कथन मिथ्या होगा; क्योंकि गन्ध वास्तव में पृथ्वी का गुण है; अत: उसे पृथ्वी मे ही स्थित जानना चाहिये । जल और वायुमें वह आगन्तुक की भॉति स्थित होता है । ये नाना प्रकार की शक्तिवाले महत्तत्व, मन (अहंकार) और पंचसूक्ष्म महाभूत सात पदार्थ पृथक्-पृथक् रहकर जब तक सब के सब मिल न सकें; तब तक उनमें प्रजा की सृष्टि करने की शक्ति नहीं आयी । परंतु ये सातों व्यापक पदार्थ ईश्वर की इच्छा होनेपर जब एक दूसरे से मिलकर परस्पर सहयोगी हो गये, तब भिन्न-भिन्न शरीर के आकार में परिणत हुए । उस शरीरनामक पुर में निवास करनेके कारण जीवात्मा पुरूष कहलाता है । पंच स्थूल महाभूत, दस इन्द्रियॉ और मन- इन सोलह तत्वों से शरीर का निर्माण हुआ है । इन सबका आश्रय होने के कारण ही देह को शरीर कहते हैं । शरीर के उत्पन्न होनेपर उसमें जीवों के भोगावशिष्ट कर्मो के साथ सूक्ष्म महाभूत प्रवेश करते हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इन सप्तर्षियों के नाम इस प्रकार हैं-मरीचिरगिराश्रात्रि: पुलस्त्य: पुलह: क्रतु: । वसिष्ठ इति सप्तैते मानसा निर्मिता हि ते ।।मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्तय, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ – ये सातो महर्षि तुम्हारे (ब्रह्राजीके) द्वारा ही अपने मन से रचे हुए हैं ।
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