महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 257-273
चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
उसके सात फन थे । उसका डीलडौल भी विशाल था । तीखी दाढ़े दिखायी देती थीं । वह अपने प्रचण्ड विष के कारण मतवाला हो रहा था । उसकी विशाल ग्रीवा प्रत्यंचा से आवेष्टि थी । वह पुरूष-शरीर धारण करके खड़ा था । भगवान् जो बाण था वह सूर्य और प्रलयकालीन अग्नि के समान प्रचण्ड तेज से प्रकाशित होता था । यही अत्यंत भयंकर एवं महान् दिव्य पाशुपत अस्त्र था ।। उसके जोड़ का दूसरा अस्त्र नहीं था । समस्त प्राणियों को भय देने वाला वह विशालकाय अस्त्र निर्वचनीय जान पड़ता था और अपने मुख से चिनगारियों सहित अग्नि की वर्षा कर रहा था । वह भी सर्प के ही आकार में दृष्टिगोचर होता था। उसके एक पैर, बहुत बड़ी दाढ़े, सहस्त्रों सिर, सहस्त्रों पेट, सहस्त्रों भुजा, सहस्त्रो जिहृा और सहस्त्रों नेत्र थे । वह आग-सा उगल रहा था । महाबाहो ! सम्पूर्ण शस्त्रों का विनाश करने वाला वह पाशुपत अस्त्र ब्राहृा, नारायण, ऐन्द्र, आग्नेय और वारूण अस्त्र से भी बढ़कर शक्तिशाली था । गोविन्द ! उसी के द्वारा महादेव जी ने लीलापूर्वक एक ही बाण मारकर क्षणभर में दैत्यों के तीनों पुरों को जलाकर भस्म कर दिया था । भगवान् महेश्वर की भुजाओं से छूटने पर वह अस्त्र चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण त्रिलोकी को आधे निमेष में ही भस्म कर देता है - इसमें संशय नहीं है । इस लोक में जिस अस्त्र के लिये ब्रहृा, विष्णु आदि देवताओं में से भी कोई अवध्य नहीं है, उस परम उत्तम आश्चर्य मय पाशुपतास्त्र को मैंने यहां प्रत्यक्ष देखा था । वह श्रेष्ठ अस्त्र परम गोपनीय है । उसके समान अथवा उससे बढ़कर भी दूसरा कोई श्रेष्ठ अस्त्र नहीं है । त्रिशुलधारी भगवान् शंकर का सम्पूर्ण लोकों में विख्यात जो वह त्रिशुल नामक अस्त्र हैवह शूलपाणि शंकर के द्वारा छोड़े जाने पर इस सारी पृथ्वी को विदीर्ण कर सकता है, महासागर को सुखा सकता है अथवा समस्त संसार का संहार कर सकता है । श्रीकृष्ण ! पूर्वकाल में त्रिलोकविजयी, महातेजस्वी, महाबली, महान् वीर्यशाली, इन्द्रतुल्य पराक्रमी चक्रवर्ती राजा मान्धाता लवणासुर के द्वारा प्रयुक्त हुए उस शूल से ही सेना सहित नष्ट हो गये थे । अभी वह अस्त्र उस असुर के हाथ से छूटने भी नहीं पाया था कि राजा का सर्वनाश हो गया । उस शूल का अग्रभाग अत्यंत तीक्ष्ण है । वह बहुत ही भयंकर और रोमांचकारी है, मानो वह अपनी भौंहे तीन जगह से टेढ़ी करके विरोधी को डांट बता रहा हो, ऐसा जान पड़ता है । गोविन्द ! धूमरहित आग की ज्वालाओं सहित वह काला त्रिशुल प्रलयकाल के सूर्य के समान उदित हुआ था, और हाथ में सर्प लिये अवर्णनीय शक्तिशाली पाशधारी यमराज के समान जान पड़ता था । भगवान् रूद्र के निकट मैंने उसका भी दर्शन किया था । पूर्वकाल में महादेवजी ने संतुष्ट होकर परशुराम को जिसका दान किया था और जिसके द्वारा महासमर में चक्रवर्ती राजा कार्तवीर्य अर्जुन मारा गया था, क्षत्रियों का विनाश करने वाला वह तीखी धार से युक्त परशु मुझे भगवान् रूद्र के निकट दिखायी दिया था । गोविन्द ! अनायास ही महान् कर्म करने वाले जमदग्निनन्दन परशुराम ने उसी परशु के द्वारा इक्कीस बार इस पृथ्वी को क्षत्रियों से शून्य कर दिया था ।
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