महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 233 श्लोक 1-15

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त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततम (233) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततम श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


ब्राह्राप्रलय एवं महाप्रलय का वर्णन

व्‍यास जी कहते हैं – बेटा ! अब मैं यह बता रहा हॅू कि ब्रह्राजी का दिन बीतनेपर उनकी रात्रि आरम्‍भ होने के पहले ही किस प्रकार इस सृष्टि का लय होता है तथा लोकेश्‍वर ब्रह्राजी स्‍थूल जगत् को अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म करके इसे कैसे अपने भीतर लीन कर लेते हैं ? जब प्रलय का समय आता है, तब आकाश में ऊपर से सूर्य और नीचेसे अग्नि की सात ज्‍वालाऍ संसार को भस्‍म करने लगती हैं । उस समय यह सारा जगत् ज्‍वालाओं से व्‍याप्‍त होकर जाज्‍वल्‍यमान दिखायी देने लगता है । भूतल के जितने भी चराचर प्राणी हैं, वे सब पहले ही दग्‍ध होकर पृथ्‍वी में एकाकार हो जाते हैं । तदनन्‍तर स्‍थावर जंगम सम्‍पूर्ण प्राणियों के लीन हो जानेपर तृण और वृक्षों से रहित हुई यह भूमि कछुए की पीठ-सी दिखायी देने लगती है । तत्‍पश्‍चात् जब जल पृथ्‍वी के गुण गन्‍ध को ग्रहण कर लेता हैं, तब गन्‍धहीन हुई पृथ्‍वी अपने कारणभूत जल में लीन हो जाती है । फिर तो जल गम्‍भीर शब्‍द करता हुआ चारों और उमड़ पड़ता है और उसमें उतल तरंगे उठने लगती हैं । वह सम्‍पूर्ण विश्‍व को अपने में निमग्‍न करके लहराता रहता है । वत्‍स ! तदनन्‍तर तेज जल के गुण रस को ग्रहण कर लेता है और रसहीन जल तेज में लीन हो जाता है । उस समय जब आग की लपटें सूर्य को अपने भीतर करके चारों ओर से ढक लेती हैं, तब सम्‍पूर्ण आकाश ज्‍वालाओं से व्‍याप्‍त होकर प्रज्‍वलित होता सा जान पड़ता है । फिर तेज के गुण रूप को वायुतत्‍व ग्रहण कर लेता है । इससे आग शान्‍त हो जाती है और वायु में मिल जाती है । तब वायु अपने महान् वेग से सम्‍पूर्ण आकाश को क्षुब्‍ध कर डालती है । वह बडे़ जोर से हरहराती और अपने वेग से उत्‍पन्‍न आवाज को फैलाती हुई ऊपर नीचे तथा इधर उधर दसों दिशाओं मे चलने लगती है । इसके बाद आकाश वायु के गुण स्‍पर्श को भी ग्रस लेता है । तब वायु शान्‍त हो जाती है और आकाश में मिल जाती हैं; फिर तो आकाश महान् शब्‍द से युक्‍त हो अकेला ही रह जाता है । उसमें रूप, रस, गन्‍ध और स्‍पर्श का नाम भी नहीं रह जाता । किसी भी भूत पदार्थ की सत्‍ता नहीं रहती । जिसका शब्‍द सभी लोकों में निनादित होता था, वह आकाश की केवल शब्‍द गुण से युक्‍त होकर शेष रहता है । तत्‍पश्‍चात् दृश्‍य प्रपंच को व्‍यक्‍त करनेवाला मन आकाश के गुण शब्‍द को, जो मन से ही प्रकट हुआ था, अपने में लीन कर लेता है । इस तरह व्‍यक्‍त मन और अव्‍यक्‍त (महतत्‍व) का ब्रह्रा के मन में लय होना ब्राह्रा प्रलय कहलाता है । महाप्रलय के समय चन्‍द्रमा व्‍यक्‍त मन को आत्‍मगुण में प्रविष्‍ट करके स्‍वयं उसको ग्रस लेते हैं । तब मन उपरत (शान्‍त) हो जाता है; फिर वह चन्‍द्रमा में उपस्थित रहता है । तत्‍पश्‍चात् संकल्‍प (अव्‍यक्‍त मन) दीर्घकाल में उस व्‍यक्‍तमनसहित चन्‍द्रमा को अपने वशीभूत कर लेता है और समष्टि बुद्धि संकल्‍प को गस लेती है । उसी बुद्धि को परम उत्‍तम ज्ञान माना गया है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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