महाभारत आदि पर्व अध्याय 156 श्लोक 31-41

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षट् पञ्चाशदधिकशततम (156) अध्‍याय: आदि पर्व (जतुगृह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: षट् पञ्चाशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्मण परिवार का कष्‍ट दूर करने के लिये कुन्‍ती को भीमसेन से बातचीत तथा ब्राह्मण के चिन्‍तापूर्ण उद्रार

प्रिये ! तुम मेरी सहवर्मिणी और इन्द्रियों को संयम में रखनेवाली हो। सदा सावधान रहकर माता के समान मेरा पालन-पोषण करती हो। देवताओं ने तुम्‍हें मेरी सखी (सहायिका) बनाया है। तुम सदा मेरी परम गति (सबसे बड़ा सहारा) हो। तुम्‍हारे पिता-माता ने तुम्‍हें सदा के लिये मेरे गृहस्‍थाश्रम की अधिकारिणी बनाया है। मैंने विधिपूर्वक तुम्‍हारा वरण करके मन्‍त्रोच्चारणपूर्वक तुम्‍हारे साथ विवाह किया है। तुम कुलीन, सुशीला और संतानवती हो, सती-साध्‍वी हो। तुमने कभी मेरा अपकार नहीं किया है। तुम नित्‍य जीवन की रक्षा के लिये तुम्‍हें नहीं त्‍याग सकूंगा। फिर स्‍वयं ही अपने उस पुत्र का त्‍याग कैसे कर सकूंगा, जो अभी निराबच्चा है, जिसने युवावस्‍था में प्रवेश नहीं किया है तथा जिसके शरीर में अभी जवानी के लक्षण तक नहीं प्रकट हुए हैं। साथ ही अपनी इस कन्‍या को कैसे त्‍याग दूं,जिसे महात्‍मा ब्रह्मजी-ने उसके भावी पति के लिये धरोहर के रुप में मेरे यहां रख छोड़ा है? जिसके होने से मैं पितरों के साथ दौहित्रजनित पुण्‍यलोकों को पाने की आशा रखता हूं, उसी अपनी बालिका को स्‍वंय ही जन्‍म देकर मैं मौत के मुख में कैसे छोड़ सकता हूं ? कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पिता का अधिक स्‍नेह पुत्र पर होता है तथा कुछ दूसरे लोग पुत्री पर ही अधिक स्‍नेह बताते हैं, किंतु मेरे तो दोनों ही समान है। जिस पर पुण्‍यलोक, वशपरम्‍परा और नित्‍य सुख-सब कुछ सदा निर्भर रहते हैं, उस निष्‍पाप बालिका का परित्‍याग मैं कैसे कर सकता हूं। अपने को भी त्‍यागकर परलोक में जाने पर मैं सदा इस बात के लिये संतप्‍त होता रहूंगा कि मेरे द्वारा त्‍यागे हुए ये बच्‍चे अवश्‍य ही यहां जीवित नहीं रह सकेंगे। इनमें से किसी का त्‍याग विद्वानों ने निर्दयतापूर्वक तथा निन्‍दनीय बताया है और मेरे मर जाने पर ये सभी मेरे बिना मर जायंगे। अहो ! मैं बड़ी कठिन विपत्ति में फंस गया हूं। इससे पार होने की मुझमें शक्ति नहीं है। धिक्‍कार है इस जीवन को ! हाय ! मैं बन्‍धु-बान्‍धवों के साथ आज किस गति को प्राप्‍त होऊंगा। सबके साथ मर जाना ही अच्‍छा है। मेरा जीवित रहना कदापि उचित नहीं है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत बकवधपर्व में ब्राह्मण की चिन्‍ता विषयक एक सौ छम्‍पनवां अध्‍याय पूरा हुआ। (दाक्षिणास्‍य अधिक पाठ के 4 श्‍लोक मिलाकर कुछ 45 श्‍लोक हैं)



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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