महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 239 श्लोक 1-15

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एकोनचत्वाारिंशदधिकद्विशततम (238) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वाारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद

ज्ञान का साधन और उसकी महिमा भीष्म जी कहते हैं-युधिष्ठिर ! इस प्रकार महर्षि व्या स के उपदेश देनेपर शुकदेवजीने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और मोक्षधर्म के विषय में पूछने के लिये उत्सु-क होकर इस प्रकार कहा । शुकदेव ने पूछा – पिताजी ! प्रज्ञावान्, वेदवेत्ता, याज्ञिक, दोष-दृष्टि से रहित तथा शुद्ध बुद्धिवाला पुरूष उस ब्रह्रा को कैसे प्राप्तव करता है, जो प्रत्यधक्ष और अनुमान से भी अज्ञात है तथा वेद के द्वारा भी जिसका इदमित्थं्रूप से वर्णन नहीं किया गया है । सांख्य एवं योग में तप, ब्रह्राचर्य, सर्वस्ववका त्याेग और मेधाशक्ति – इनमें से किस साधन के द्वारा तत्वब का साक्षात्काार माना गया है ? यह आपसे मेरा प्रश्ने है, आप मुझे कृपापूर्वक इस विषय का उपदेश दीजिये । मनुष्यर मन और इन्द्रियों को जिस उपाय से और जिस तरह एकाग्र कर सकता है, उस विषय का आप विशद विवेचन कीजिये । व्या‍स जी ने कहा – बेटा ! विद्या, तप, इन्द्रियनिग्रह और सर्वस्व।त्या ग के बिना कोई भी सिद्धि नहीं पा सकता । सम्पूुर्ण महाभूत विधाता की पहली सृष्टि है । वे समस्त। प्राणी समुदाय में तथा सभी देहधारियों के शरीरों में अधिक से अधिक भरे हुए हैं । देहधारियों की देह का निर्माण पृथ्वीे से हुआ है, चिकनाहट और पसीने आदि जल से प्रकटहोते हैं, अग्नि से नेत्र तथा वायुसे प्राण और अपान का प्रादुर्भाव हुआ है ।नाक, कान आदि के छिद्रों में आकाश तत्वस स्थित है । चरणों की गति में विष्णुा और बाहुबल (पाणि नामक इन्द्रिय) में इन्द्रय स्थित हैं । उदर में अग्निदेवता प्रतिष्ठित हैं, जो भोजन चाहते और पचाते हैं । कानों में श्रवणशक्ति और दिशाऍ हैं तथा जिह्रा में वाणी और सरस्वाती देवा का निवास है । दोनों कान, त्व चा, दोनों नेत्र, जिह्वा और पाँचवी नासिका-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियॉ हैं । इन्हेंन विषयानुभव का द्वार बतलाया गया है । शब्दा, स्पउर्श, रूप, रस और गन्धक – ये पाँच इन्द्रियों के विषय हैं । इन्हेंप सदा इन्द्रियों से पृथक समझना चाहिये । जैसे सारथि घोडों को अपने वश में रखकर उन्हेंा इच्छालनुसार चलाता है, इसी प्रकार मन इन्द्रियों को काबूमें रखकर उन्हेंच स्वेसच्छाघ से विषयों की ओर प्रेरित करता है, परंतु हृदय में रहनेवाला जीवात्मा‍ सदा उस मनपर भी शासनकिया गरता है । जैसे मन सम्पूतर्ण इन्द्रियों का राजा और उन्हेंग विषयों की ओर प्रवृत्त करने तथा रोकनेमें भी समर्थ है, उसी प्रकार हृदयस्थित जीवात्मा भी मन का स्वाोमी तथा उसके निग्रह अनुग्रह में समर्थ है । इन्द्रियॉ, इन्द्रियों के रूप, रस आदि विषय, स्वथभाव (शीतोष्ण् धर्म) चेतना,[१] मन, प्राण, अपान और जीव ये देहधारियों के शरीरों में सदा विद्यमान रहते हैं । शरीर भी वास्तेव में सत्वे अर्थात् बुद्धि का आश्रयनहीं हैं; क्योंवकि पांचभौतिक शरीर तो उसका कार्य है तथा गुण, शब्दद एवं चेतना भी बुद्धि के आश्रय (कारण) नहीं हैं; क्योंककि बुद्धि चेतना की सृष्टि करती है, परंतु बुद्धि त्रिगुणात्मिका प्रकृति को उत्पदन्नय नहीं करती; क्योंरकि बुद्धि स्वायं उसका कार्य है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. *अन्ती:करण में जो ज्ञानशक्ति है, जिसके द्वारा मनुष्य सुख-दु:ख और समस्ती पदार्थों का अनुभव करते हैं, जो कि अन्तर:करण एक वृत्तिविशेष है, इसे ही ‘चेतना’ कहते हैं । इस प्रकार बुद्धिमान् ब्राह्राण इस शरीर में पाँच इन्द्रिय, पाँच विषय, स्व्भाव, चेतना, मन, प्राण, अपान और जीव-इन सोलह तत्वोंक से आवृत सत्रहवें परमात्मां का बुद्धि के द्वारा अन्तष:करण में साक्षात्काबर करता है

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