महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 40-59

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शततम (100) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: शततम अध्‍याय: श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद

वैशम्‍पायनजी कहते हैं-ऐसा कहकर महाभागा गंगा देवी वहीं अन्‍तर्धान हो गयीं। गंगाजी के इस प्रकार आज्ञा देने पर महाराज शान्‍तनु सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले अपने पुत्र को लेकर राजधानी में आये। उनका अस्तिनापुर इन्‍द्र नगरी अमरावती के समान सुन्‍दर था। पूरूवंशी राजा शान्‍तनु पुत्र सहित उसमें जाकर अपने आपको सम्‍पूर्ण कामनाओं से सम्‍पन्न एवं सफल मनोरथ मानने लगे। तदनन्‍तर उन्‍होंने सबको अभय देने वाले महात्‍मा एंव गुणवान् पुत्र को राजकाज में सहयोग करने के लिये समस्‍त पौरवों के बीच में युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया। जनमेजय ! शान्‍तनु के उस महायशस्‍वी पुत्र ने अपने आचार-व्‍यवहार से पिता को, पौरव समाज को तथा समूचे राष्ट्र को प्रसन्न कर लिया। अमित पराक्रमी राजा शान्‍तनु ने वैसे गुणवान् पुत्र के साथ आनन्‍द पूर्वक रहते हुए चार वर्ष व्‍यतीत किये। एक दिन वे यमुना नदी के निकटवर्ती वन में गये। वहां राजा को अवर्णीय एवं परम उत्तम सुगन्‍ध का अनुभव हुआ। वे उसके उद्गम स्‍थान का पता लगाते हुए सब ओर विचरने लगे। घूमते-घूमते उन्‍होंने मल्लाओं की एक कन्‍या देखी, जो देवांगनाओं के समान रुपवती थी। श्‍याम नेत्रों वाली उस कन्‍या को देखते ही राजा ने पूछा- ‘भीरु ! तू कौन है, किसी पुत्री है और क्‍या करना चाहती है?’ वह बोली- राजन् ! आपका कल्‍याण हो। मैं निषाद कन्‍या हूं और अपने पिता महामना निषादराज की आज्ञा से धर्मार्थ नाव चलाती हूं।’ राजा शान्‍तनु ने रुप, माधुर्य तथा सुगन्‍ध से युक्त देवांगना के तुल्‍य उसके पिता के समीप जाकर उन्‍होंने उसका वरण किया। उन्‍होंने उसके पिता से पूछा- ‘मैं अपने लिये तुम्‍हारी कन्‍या चाहता हूं। ‘यह सुनकर निषादराज ने राजा शान्‍तनु को यह उत्तर दिया-‘जनेश्वर ! जब से इस सुन्‍दरी कन्‍या का जन्‍म हुआ है, तभी से मेरे मन में यह चिन्‍ता है कि इसका किसी श्रेष्ठ वर के साथ विवाह करना चाहिये; किंतु मेरे हृदय में एक अभिलाषा है, उसे सुन लीजिये। ‘पाप रहित नरेश ! यदि इस कन्‍या को अपनी धर्मपत्नी बनाने के लिये आप मुझसे मांग रहे हैं, तो सत्‍य को सामने रखकर मेरी इच्‍छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कीजिये; क्‍योंकि आप सत्‍यवादी हैं। ‘राजन ! मैं इस कन्‍या को एक शर्त के साथ आपकी सेवा में दूंगा। मुझे आपके समान दूसरा कोई श्रेष्ठ वर कभी नहीं मिलेगा’। शान्‍तनु ने कहा- निषाद ! पहले तुम्‍हारे अभी फि‍र वर को सुन लेने पर मैं उसके विषय में कुछ निश्चय कर सकता हूं। यदि देने योग्‍य होगा, तो दूंगा और देने योग्‍य नहीं होगा, तो कदापि नहीं दे सकता। निषाद बोला- पृथ्‍वीपते ! इसके गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्न हो, आपके बाद उसी का राजा के पद पर अभिषेक किया जाय, अन्‍य किसी राजकुमार का नहीं। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा शान्‍तनु प्रचण्‍ड कामाग्नि से जल रहे थे, तो भी उनके मन में निषाद को वह वर देने की इच्‍छा नहीं हुई । काम की वेदना सेउनका चित्त चञ्चल था। वे उस निषाद कन्‍या का ही चिन्‍तन करते हुए उस समय हस्तिनापुर को लौट गये। तदनन्‍तर एक दिन राजा शान्‍तनु ध्‍यानस्‍थ होकर कुछ सोच रहे थे- चिन्‍ता में पड़े थे। इसी समय उनके पुत्र देवव्रत अपने पिता के पास आये और इस प्रकार बोले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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