महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 41 श्लोक 19-36

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एकचत्‍वारिंश (41) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद

इसी समय महातपस्‍वी विपुल गुरुपत्‍नी को छोड़कर अपने शरीर में आ गये और डरे हुए इन्द्र से विपुल ने कहा- ‘पापात्‍मा पुरन्‍दर! तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है। तू सदा इन्द्रियोंका गुलाम बना रहता है। यदि यही दशा रही तो अब देवता तथा मनुष्‍य अधिक काल तक तेरी पूजा नहीं करेंगे। इन्‍द्र ! क्‍या तू उस घटना को भूल गया? क्‍या तेरे मन में उसकी याद नहीं रह गयी है? जबकि महर्षि गौतम ने तेरे सारे शरीर में भग के (हजार) चिहन बनाकर तुझे जीवित छोड़ था। मैं जानता हूँ कि तू मूर्ख है, तेरा मन वश में नहीं और तू महाचंचल है। पापी मूढ़! यह स्‍त्री मेरे द्वारा सुरक्षित है। तू जैसे आया है, उसी तरह लौट जा। मूढ़चित्त इन्‍द्र! मैं अपने तेज से तुझे जलाकर भस्‍म कर सकता हूँ। केवल दया करके ही तुझे इस समय जलाना नहीं चाहता। मेरे बुद्धिमान गुरु बड़े भयंकर हैं। वे तुझ पापात्‍मा को देखते ही आज क्रोध से उदीप्‍त हुई दृष्टि द्वारा दग्‍ध कर डालेंगे। इन्‍द्र! आज से फिर कभी ऐसा काम न करना। तुझे ब्राहामणों का सम्‍मान करना चाहिये, अन्‍यथा कहीं ऐसा न हो कि तुझे ब्रम्ह तेज से पीड़ित होकर पुत्रों और मन्त्रियों सहित काल के गाल में जाना पड़े। मैं अमर हूँ- ऐसी बुद्धि का आश्रय लेकर यदि तू स्‍वेच्‍छाचार में प्रवृत हो रहा है तो (मैं तुझे सचेत किये देता हूँ) यों किसी तपस्‍वी का अपमान न किया कर; क्‍योंकि तपस्‍या से कोई भी कार्य असाध्‍य नहीं है (तपस्‍वी अमरों को भी मार सकता है)। भीष्‍मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! महात्‍मा विपुल का वह कथन सुनकर इन्‍द्र बहुत लज्जित हुए और कुछ भी उत्तर न देकर वहीं अन्‍तर्धान हो गये। उनके गये अभी एक मूहूर्त बीतने पाया था कि महातपस्‍वी देव शर्मा इच्‍छानुसार यज्ञ पूर्ण करके अपने आश्रम पर लौट आये। राजन! गुरु के आने पर उनका प्रिय कार्य करने वाले विपुल ने अपने द्वारा सुरक्षित हुई उनकी सती-साध्‍वी भार्या रुचि को उन्‍हें सौंप दिया। शान्‍त चित वाले गुरु प्रेमी विपुल गुरुदेव को प्रणाम करके पहले की ही भांति निर्भीक होकर उनकी सेवा में उपस्थित हुए। जब गुरुजी विश्राम करके अपनी पत्‍नी के साथ बैठे,तब विपुल ने वह सारी करतूत उन्‍हें बतायी। यह सुनकर प्रतापी मुनि देव शर्मा विपुल के शील, सदाचार, तप और नियम से बहुत संतुष्‍ट हुए। विपुल की गुरु सेवावृति, अपने प्रति भक्ति और धर्म विषयक दृढ़ता देखकर गुरु ने ‘बहुत अच्‍छा, बहुत अच्‍छा’ कहकर उनकी प्रशंसा की। परम बुद्धिमान धर्मात्‍मा देव शर्मा ने अपने धर्म-परायण शिष्‍य विपुल को पाकर उन्‍हें इच्‍छानुसार वर माँगने को कहा। गुरुवत्‍सल विपुल ने गुरु से यही वर माँगा कि ‘मेरी धर्म में निरन्‍तर स्थिति बनी रहे।‘ फिर गुरु की आज्ञा लेकर उन्‍होंने सर्वोतम तपस्‍या आरम्‍भ की। महातपस्‍वी देव शर्मा भी बल और वृत्रासुर का वध करने वाले इन्‍द्र से निर्भय हो पत्‍नी सहित उस निर्जन वन में विचरने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्‍तगर्त दानधर्मपर्व में विपुल का उपाख्‍यानविषयक इकतालीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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