महाभारत आदि पर्व अध्याय 117 श्लोक 1-16
==सप्तदशाधिकशततम (117) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)==
राजा पाण्डु के द्वारा मृगरुपधारी मुनि का वध तथा उनसे शाप की प्राप्ति
जनमेजय ने कहा- भगवन् ! आपने धृतराष्ट्र के पुत्रों के जन्म का उत्तम प्रसंग सुनाया है, जो महर्षि व्यास की कृपा से सम्भव हुआ था। आप ब्रह्मवादी हैं। आपने यद्यपि यह मनुष्यों के जन्म का वृत्तान्त बताया है, तथापि यह दूसरे मनुष्यों में कभी नहीं देखा गया। ब्रह्मन् ! इन धृतराष्ट्र पुत्रों के पृथक-पृथक नाम भी जो आपने कहे हैं, वे मैंने अच्छी तरह सुन लिये। अब पाण्डवों के जन्म का वर्णन कीजिये। वे सब महात्मा पाण्डव देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी थे। आपने ही अंशावतरण के प्रसंग में उन्हें देवताओं का अंश बताया था। वैशम्पायनजी ! वे ऐसे पराक्रम कर दिखाते थे, जो मनुष्यों की शक्ति के परे हैं; अत: मैं उनके जन्म सम्बन्धी वृत्तान्त की सम्पूर्णता से सुनना चाहता हूं; कृपा करके कहिये। वैशम्पायनजी बोले- जनमेजय ! एक समय राजा पाण्डु मृगों और सर्पों से सेवित विशाल वन में विचर रहे थे। उन्होंने मृगों के एक यूथपति को देखा, जो मृगी के साथ मैथुन कर रहा था। उसे देखते ही राजा पाण्डु ने पांच सुन्दर एवं सुनहरे पंखों से युक्त तीखे तथा शीघ्रगामी बाणों द्वारा,उस मृगी और मृग को भी बींध डाला। राजन् ! उस मृग के रुप में एक महा तेजस्वी तपोधन ॠषि पुत्र थे, जो अपनी मृगरूप धारिणी पत्नी के साथ तेजस्वी मृग बनकर समागम कर रहे थे। वे उस मृगी से सटे हुए ही मनुष्यों की-सी बोली बोलते हुए क्षण भर में पृथ्वी पर गिर पड़े। उनकी इन्द्रियां व्याकुल हो गयीं और वे विलाप करने लगे। मृग ने कहा- राजन् ! जो मनुष्य काम और क्रोध से घिरे हुए, बुद्धि शून्य तथा पापों में संलग्न रहने वाले हैं, वे भी ऐसे क्रूरता पूर्ण कर्म को त्याग देते हैं। बुद्धि प्रारब्ध को नहीं ग्रसती (नहीं लांघ सकती), प्रारब्ध ही बुद्धि को अपना ग्रास बना लेता है (भ्रष्ट कर देता है) प्रारब्ध से प्राप्त होने वाले पदार्थों को बुद्धिमान् पुरुष भी नहीं जान पाता। भारत ! सदा धर्म में मन लगाने वाले क्षत्रियों के प्रधान कुल में जन्म हुआ है, तो भी काम और लोभ के वशीभूत होकर तुम्हारी बुद्धि धर्म से कैसे विचलित हुई? पाण्डु बोले- शत्रुओं के वध में राजाओं की जैसी वृत्ति बतायी गयी है, वैसी ही मृगों के वध में भी मानी गयी है; अत: मृग तुम्हें मोहवश मेरी निन्दा नहीं करनी चाहिये। प्रकट या अप्रकट रूप में मृगों का वध हमारे लिये अभीष्ट है। वह राजाओं के लिये धर्म है, फिर तुम उसकी निन्दा कैसे करते हो ? महर्षि अगस्त्य एक सत्र में दीक्षित थे, तब उन्होंने भी मृगया की थी। सभी देवताओं के हित के लिये उन्होंने सत्र में विघ्न करने वाले पशुओं को महान् वन में खदेड़ दिया था। अगस्त्य ॠषि के उक्त हिंसा कर्म के अनुसार (मुझ क्षत्रिय के लिये तो) तुम्हारा वध करना ही उचित है। मैं प्रमाण सिद्ध धर्म के अनुकूल बर्ताव करता हूं, तो भी तुम क्यों मेरी निन्दा करते हो? मृग ने कहा- मनुष्य अपने शत्रुओं पर भी, विशेषत: जब वे संकट काल में हो, बाण नहीं छोड़ते। उपयुक्त अवसर (संग्राम आदि) में ही शत्रुओं के वध की प्रशंसा की जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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