महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 47 श्लोक 32-50

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सप्‍तचत्‍वारिंश (47) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्‍तचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 32-50 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर! पति को स्‍नान कराना, उनके लिये श्रृंगार-सामग्री प्रस्‍तुत करना, दाँत की सफाई के लिये दातून और मंजन देना, पति के नेत्रों में आँजन या सुरमा लगाना, प्रतिदिन हवन और पूजन के समय हव्‍य और काव्‍य की सामग्री जुटाना तथा घर में और भी धार्मिक कृत्‍य हों उसके सम्‍पादन में योग देना-ये सब कार्य ब्राहामण के लिये ब्राहामणी को करना चाहिये। उसके रहते हुए दूसरे किसी वर्ण वाली स्‍त्री को यह सब करने का अधिकार नहीं है। पति को अन्‍न, पान,माला, वस्‍त्र, और आभूषण-ये सब वस्‍तुएं ब्राहामणी ही समर्पित करे; क्‍योंकि वही उसके लिये सब स्त्रियों से अधिक गौरव की अधिकारिणी है। महाराज कुरुनंदन! मनु ने भी जिस धर्मशास्‍त्र का प्रतिपादन किया है, उसमें भी यही सनातन धर्म देखा गया है। युधिष्ठिर! यदि ब्राहामण काम के वशीभूत होकर इस शास्‍त्रीय पद्धति के विपरीत बर्ताव करता है, वह ब्राहामण चाण्‍डाल समझा जाता है। जैसा कि पहले कहा गया है। राजन! ब्राहामण के समान ही जो क्षत्रिय का पुत्र होगा, उसमें भी उभवर्ण सम्‍बन्‍धी अन्‍तर तो रहेगा ही। क्षत्रिय कन्‍या संसार में अपनी जाति द्वारा ब्राहामण-कन्‍या के बराबर नहीं हो सकती। नृपश्रेष्‍ठ! इसी प्रकार ब्राहामणी का पुत्र क्षत्रिया के पुत्र से प्रथम एवं ज्‍येष्‍ठ होगा। युधिष्ठिर! इसलिये पिता के धन में से ब्राहामणी के पुत्र को अधिक-से अधिक भाग देना चाहिये। जैसे क्षत्रिया कभी ब्राहाणी के समान नहीं हो सकती वैसे ही वैश्‍या भी कभी क्षत्रिया के तुल्‍य नहीं हो सकती। राजा युधिष्ठिर! लक्ष्‍मी, राज्‍य और कोष- यह सब शास्‍त्र में क्षत्रियों के लिये ही विहीत देखा जाता है।राजन! क्षत्रिय अपने धर्म के अनुसार समुन्‍द्रपर्यन्‍त पृथ्‍वी तथा बहुत बड़ी सम्‍पति प्राप्‍त कर लेता है।नरेश्‍वर! राजा (क्षत्रिय) दण्‍ड धारण करने वाला होता है। क्षत्रिय के सिवा और किसी से रक्षा का कार्य नहीं हो सकता। राजन! महाभाग! ब्राहामण देवताओं के भी देवता हैं; अत: उनका विधिपूर्वक पूजन-आदर-सत्‍कार करते हुए ही उनके साथ बर्ताव करें। ॠषियों द्वारा प्रतिपादित अविनाशी सनातन धर्म को लुप्‍त होता जानकर क्षत्रिय अपने धर्म के अनुसार उसकी रक्षा करता है। डाकुओं द्वारा लूटे जाते हुए सभी वर्णों के धन और स्त्रियों का राजा ही रक्षक होता है। इन सब दृष्टियों से क्षत्रिया का पुत्र वैश्‍या के पुत्र से श्रेष्‍ठ होता है-इसमें कोई संशय नहीं है। युधिष्ठिर! इसलिये शेष पैतृक धन में से उसको भी विशेष भाग लेना ही चाहिये। युधिष्ठिर ने पूछा –पितामह! आपने ब्राहामण के धन का विभाजन विधिपूर्वक बता दिया। अब यह बताइये कि अन्‍य वर्णों के धन के बँटवारे का कैसा नियम होना चाहिये? भीष्‍म जी ने कहा-कुरुनन्‍दन! क्षत्रिय के लिये भी दो वर्णों की भार्याएँ शास्‍त्रविहीत हैं। तीसरी शूद्रा भी उसकी भार्या हो सकती है। परंतु शास्‍त्र से उसका समर्थन नहीं होता। राजा युधिष्ठिर! क्षत्रियों के लिये भी बँटवारे का यही क्रम है। क्षत्रिय के धन को आठ भागों में विभक्‍त करना चाहिये। क्षत्रिय का पुत्र उस पैतृक धन में से चार भाग स्‍वयं ग्रहण कर ले तथा पिता की जो युद्ध सामग्री है, उसको भी वही ले ले। शेष धन में से तीन भाग वैश्‍या का पुत्र ले ले और अवशिष्‍ट आठवाँ भाग शूद्रा का पुत्र प्राप्‍त करे। वह भी पिताके देने पर ही उसे लेना चाहिये। बिना दिया हुआ धन ले जाने का उसे अधिकार नही है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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