महाभारत आदि पर्व अध्याय 118 श्लोक 29-50

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अष्टादशाधिकशततम (118) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 29-50 का हिन्दी अनुवाद

‘हम दोनों कामसुख का परित्‍याग करके पतिलोक की प्राप्ति की परम लक्ष्‍य लेकर अपनी सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को संयम में रखती हुई भारी तपस्‍या करेंगी। ‘महाप्राज्ञ नरेश्वर ! यदि आप हम दोनों को त्‍याग देंगे तो आज ही हम अपने प्राणों का परित्‍याग कर देंगी, इसमें संशय नहीं है’। पाण्‍डु ने कहा- देवियो ! यदि तुम दोनों का यही धर्मयुक्त निश्चय है तो (ठीक है, मैं संन्‍यास न लेकर वानप्रस्‍थ आश्रम में ही रहूंगा तथा) आज से अपने पिता वेदव्‍यासजी की अक्षय फल वाली जीवन चर्या का अनुसरण करूंगा। भोगियों के सुख और आहार का परित्‍याग करके भारी तपस्‍या में लग जाऊंगा। वल्‍कल पहनकर फल-मूल का भोजन करते हुए महान् वन में विचरूंगा। दोनों समय स्नान-संध्‍या और अग्निहोत्र करूंगा। चिथड़े, मृगचर्म और जटा धारण करूंगा। बहुत थोड़ा आहार ग्रहण करके शरीर से दुर्बल हो जाऊंगा। सर्दी, गरमी और आंधी का वेग सहूंगा। भूख-प्‍यास की परवा नहीं करूंगा तथा दुष्‍कर तपस्‍या करके इस शरीर को सुखा डालूंगा। एकान्‍त में रहकर आत्‍म-चिन्‍तन करूंगा। कच्‍चे (कन्‍द-मूल आदि) और पक्‍के (फल आदि) से जीवन-निर्वाह करूंगा। देवताओं और पितरों को जंगली फल-मूल, जल तथा मन्‍त्रपाठ द्वारा तृप्त करूंगा। मैं वानप्रस्‍थ आश्रम में रहने वालों का तथा कुटुम्‍बीजनों का भी दर्शन और अप्रिय नहीं करूंगा; फि‍र ग्राम वासियों की तो बात ही क्‍या है? इस प्रकार मैं वानप्रस्‍थ-आश्रम से सम्‍बन्‍धी शास्त्रों की कठोर-से-कठोर विधियों के पालन की आकांक्षा करता हुआ तब तक वानप्रस्‍थ-आश्रम में स्थित रहूंगा जब तक कि शरीर का अन्‍त न हो जाय। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! कुरुकुल को आनन्दित करने वाले राजा पाण्‍डु ने अपनी दोनों पत्नियों से यों कहकर अपने सिरपेंच, निष्‍क (वक्ष:स्‍थल के आभूषण), बाजूबंद, कुण्‍डल और बहुमूल्‍य वस्त्र तथा माद्री और कुन्‍ती के भी शरीर के गहने उतार कर सब ब्राह्मणों को दे दिये । फि‍र सेवकों से इस प्रकार कहा- ‘तुम लोग हस्तिनापुर में जाकर कह देना कि कुरुनन्‍दन राजा पाण्‍डु अर्थ, काम, विषय सुख और स्त्रीविषयक रति आदि सब कुछ छोड़कर अपनी पत्नियों के साथ वानप्रस्‍थ हो गये हैं’। भरतसिंह पाण्‍डु की यह करुणायुक्त चित्र-विचित्र वाणी सुनकर उनके अनुचर और सेवक सभी हाय-हाय करके भयंकर आर्तनाद करने लगे। उस समय नेत्रों से गरम-गरम आंसुओं की धारा बहाते हुए वे सेवक राजा पाण्‍डु को छोड़कर और बचा हुआ सारा धन लेकर तुरंत हस्तिनापुर को चले गये। उन्‍होंने हस्तिनापुर में जाकर महात्‍मा राजा पाण्‍डु का सारा समाचार राजा धृतराष्ट्र को ज्‍यों-का-त्‍यों कह सुनाया और नाना प्रकार का धन धृतराष्ट्र को ही सौंप दिया। फि‍र उन सेवकों से उस महान् वन में पाण्‍डु के साथ घटित हुई सारी घटनाओं को यथावत् सुनकर नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र सदा पाण्‍डु की ही चिन्‍ता में दुखी रहने लगे। शय्‍या, आसन और नाना प्रकार के भोगों में कभी उनकी रूचि नहीं होती थी। वे भाई के शोक में मग्न हो सदा उन्‍हीं की बात सोचते रहते थे। जनमेजय  ! राजकुमार पाण्‍डु फल-मूल का आहार करते हुए, अपनी दोनों पत्नियों के साथ वहां से नागशत नामक पर्वत पर चले गये। तत्पश्चात चैत्ररथ नामक वन में जाकर कालकूट और हिमालय पर्वत को लाघंते हुए वे गन्‍धदामन पर चले गये। महाराज  ! उस समय महाभूत, सिद्ध और महर्षिगण उनकी रक्षा करते थे। वे ऊंची-ऊंची जमीन पर सोते थे। इन्‍द्रधुम्न सरोवर पर पहुंचकर तथा उसके बाद हंसकुट को लांघते हुए वे शतश्रंग पर्वत पर जा पहुंचे। जनमेजय  ! वहां वे तपस्‍वी जीवन बिताते हुए भारी तपस्‍या में संलग्‍न हो गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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