महाभारत आदि पर्व अध्याय 119 श्लोक 17-32
एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
नि:संतान अवस्था में मेरे इस शरीर का नाश होने पर मेरे पितरों का पतन अवश्य हो जायगा। मनुष्य इस पृथ्वी पर चार प्रकार के ॠणों से युक्त होकर जन्म लेते हैं । (उन ॠणों के नाम ये हैं-) पितृ-ॠण, देव-ॠण, ॠषि-ॠण और मनुष्य-ॠण। उन सबका ॠण धर्मत: हमें चुकाना चाहिये। जो मनुष्य यथा समय इन ॠणों का ध्यान नहीं रखता, उसके लिये पुण्यलोक के सुलभ नहीं होते। यह मर्यादा धर्मज्ञ पुरुषों ने स्थापित की है। यज्ञों द्वारा मनुष्य् देवताओं को तृप्त करता है, स्वाध्याय और तपस्या द्वारा मुनियों को संतोष दिलाता है। पुत्रोत्पादन और श्राद्धकर्मों द्वारा पितरों को तथा दयापूर्ण बर्ताव द्वारा वह मनुष्यों को संतुष्ट करता है। मैं धर्म की दृष्टि से ॠषि, देव तथा मनुष्य- इन तीनों ॠणों से मुक्त हो चुका हूं। अन्य अर्थात पितरों के ॠण का नाश तो इस शरीर के नाश होने पर भी शायद हो सके। तपस्वी मुनियों ! मैं अब तक पितृॠण से मुक्त न हो सका। इस लोक में श्रेष्ठ पुरुष पितृ-ॠण से मुक्त होने के लिये संतानोत्पत्ति का प्रयास करते और स्वयं ही पुत्ररूप में जन्म लेते हैं। जैसे मैं अपने मेरे पिता के क्षेत्र में महर्षि व्यास द्वारा उत्पन्न हुआ हूं, उसी प्रकार मेरे इस क्षेत्र में भी कैसे संतान की उत्पत्ति हो सकती है? ॠषि बोले- धर्मात्मा नरेश ! तुम्हें पापरहित देवोपम शुभ संतान होने का योग्य है, यह हम दिव्यदृष्टि से जानते हैं। नरव्याघ्र ! भाग्य ने जिसे दे रक्खा है, उस फल को प्रयत्न द्वारा प्राप्त कीजिये। बुद्धिमान् मनुष्य व्यग्रता छोड़कर बिना क्लेश के ही अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है। राजन् ! आपको उस दृष्ट फल के लिये प्रयत्न करना चाहिये। आप निश्चय ही गुणवान् और हर्षोत्पादक संतान प्राप्त करेंगें। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तपस्वी मुनियों का यह वचन सुनकर राजा पाण्डु बड़े सोच-विचार में पड़ गये। वे जानते थे कि मृगरूपधारी मुनि के शाप से मेरा संतानोत्पादन-विषयक पुरुषार्थ नष्ट हो चुका है। एक दिन वे अपनी यशस्विनी धर्म पत्नी कुन्ती से एकान्त में इस प्रकार बोले- ‘देवि ! यह हमारेलिये आपत्तिकाल है, इस समय संतानोत्पादन के लिये जो आवश्यक प्रयत्न हो, उसका तुम समर्थन करो। ‘सम्पूर्ण लोकों में संतान ही धर्ममयी प्रतिष्ठा है- कुन्ती ! सदा धर्म का प्रतिपादन करने वाले धीर पुरुष ऐसा मानते हैं। संतानहीन मनुष्य इस लोक में यज्ञ, दान, तप और नियमों का भली-भांति अनुष्ठान कर ले, तो भी उसके किये हुए सब कर्म पवित्र नहीं कहे जाते। ‘पवित्र मुसकान वाली कुन्तिभोजकुमारी ! इस प्रकार सोच-समझ कर मैं तो यही देख रहा हूं कि संतानहीन होने के कारण मुझे शुभ लोकों की प्राप्ति नहीं हो सकती। मैं निरन्तर इसी चिन्ता में डूबा रहता हूं। ‘मेरा मन अपने वश में नहीं, मैं क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाला हूं। भीरू ! इसीलिये मृग के शाप से मेरी संतानोत्पादन-शक्ति उसी प्रकार नष्ट हो गयी है, जिस प्रकार मैंने उस मृग का वध करके उसके मैंथुन में बाधा डाली थी। ‘पृथे ! धर्मशास्त्रों में ये आगे बताये जाने वाले छ: पुत्र ‘बन्धुदायाद’ कहे गये हैं, जो कुटुम्बी होने से सम्पत्ति के उत्राधिकारी होते हैं; और छ: प्रकार के पुत्र ‘अबन्धुदायाद’ हैं, जो कुटुम्बी न होने पर भी उत्तराधिकारी बताये गये हैं। इन सबका वर्णन मुझसे सुनो।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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