महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 71 श्लोक 1-16

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एकसप्ततितम (71) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: एकसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

पिता के शाप से नाचिकेत का यमराज के पास जाना और यमराज का नाचिकेत को गोदान की महिमा बताना

युधिष्ठिर ने पूछा- निष्पाप महाबाहो। गौओं के दान से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह मुझे विस्तार के साथ बताइये। मुझे आपके वचनामृतों को सुनते-सुनते तृप्ति नहीं होती है, इसलिये अभी और कहिये । भीष्मजीने कहा- राजन। इस विषय में विज्ञ पुरुष उद्दालक ऋषि और नाचिकेत दोनो के संवाद रुप इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय उद्दालक ऋषि नें यज्ञ की दीछा लेकर अपने पुत्र नाचिकेत से कहा- ‘तुम मेंरी सेवा में रहो।’ । उस यज्ञ का नियम पूरा हो जाने पर महर्षि ने अपने पुत्र से कहा- बेटा। मैंनें समिधा, कुशा, फूल, जल का घडा और प्रचुर भोजन-सामग्री (फल-मूल आदि)- इन सबका संग्रह करके नदी किनारे रख दिया और स्नान तथा वेदपाठ करने लगा। फिर उन सब वस्तुओं को भूलकर मैं यहां चला आया। अब तुम जाकर नदी तट से वह सब सामान यहां ले आओ’।नाचिकेत जब वहां गया, तब उसे कुछ न मिला। सारा सामान नदी के वेग में बह गया था। नाचिकेत मुनि लौट आया और पिता से बोला-‘मुझे तो वहां वह सब सामान नहीं दिखायी दिया’। महा तपस्वी उद्दालक मुनि उस समय भूख-प्यास से कष्ट पा रहे थे, अतः रुष्ट होकर बाले-‘ अरे वह सब तुम्हें क्यों नही दिखायी देगा? जाओ यमराज को देखो।’ इस प्रकार उन्हौने उसे शाप दे दिया। पिता के वाग्वज्र से पीड़ित हुआ नाचिकेत हाथ जोड़कर बोला- प्रभो। प्रसन्न हाइये। इतना ही कहते-कहते वह निष्प्राण होकर पृथ्वी पर गिर पडा । नाचिकेत गिरा देख उसके पिता भी दुःख सा मूर्छितहो गये और ‘अरे, यह मैनें क्या कर डाला।’ ऐसा कहकर पृथ्वी पर गिर पडे । दःख में डूबे और बारबार अपने पुत्र के लिये शोक करते हुये ही महर्षि का वह शेष दिन व्यतीत हो गया और भयानक रात्रि भी आकर समाप्त हो गयी । कुरुश्रेष्ठ। कुश की चटाई पर पड़ा हुआ नाचिकेत पिता के आंसुओ की धारा से भीगकर कुछ हिलने-डुलने लगा, मानो वर्षा से सिंचकर अनाज की सूखी खेती हरी हो गयी हो। महर्षि का वह पुत्र मरकर पुनः लौट आया, मानो नींद टूट जाने से जाग उठा हो। उसका शरीर दिव्य सुगन्ध से व्याप्त हो रहा था। उस समय उद्दालक ने उससे पूछा- बेटा। क्या तुमनेे अपने कर्म से शुभ लोको पर विजय पायी है? मेरे सौभाग्य से ही तुम पुनः यहां चले आये हो। तुम्हारा यह शरीर मनुष्यो का-सा नही है-दिव्य भाव को प्राप्त हो गया है। अपने महात्मा पिता से इस प्रकार पूछने पर परलोक की सब बातो को प्रत्यक्ष देखने वाला नाचिकेत महर्षियों के बीच में पिता से वहां का सब वृतान्त निवेदन करने लगा- ‘पिताजी। मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिये यहां से तुरन्त प्रस्थिन हुआ और मनोहर कान्ति एवं प्रभाव से युक्त विशाल यमपुरी में पहुंचकर मैंने वहां की सभा देखी, जो सुवर्ण के समान सुन्दर प्रभा से प्रकाशित हो रही थी। उसका तेज सहस्त्रों योजन दूर तक फैला हुआ था। ‘मुझे सामने से आते देख विवस्वान के पुत्र यम ने अपने सेवको को आज्ञा दी कि ‘इनके लिये आसन दो’ उन्होंने आपके नाते अर्ध्‍य आदि पूजन सम्बन्धी उपचारो से स्‍वयं ही मेरा पूजन किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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