महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 198 श्लोक 1-11

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अष्‍टनवत्‍यधिकतशततम (198) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टनवत्‍यधिकतशततम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद

परमधामके अधिकारी जापकके लिये देवलोकभी नरक-तुल्‍य है–इसका प्रतिपादन   युधिष्ठिर ने पूछा - दादाजी ! जप करनेवाले को उसके दोषों के कारण किस तरह के नरक की प्राप्ति होती है ? उसका मुझसे वर्णन कीजिये । राजन् ! उसे जानने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतहूल हो रहा है; अत: आप अवश्‍य बतावें। भीष्‍मजीने कहा – अनघ ! तुम धर्म के अंश से अत्‍पन्‍न हुए हो और स्‍वभाव से ही धर्मनिष्‍ठ हो; अत: सावधान होकर धर्म के मूलभूत वेद और परमात्‍मा से सम्‍बन्‍ध रखनेवाली मेरी बात सुनो। परम बुद्धिमान देवताओं के ये जो स्‍थान बताये जाते हैं, उनके रूप-रंग अनके प्रकार के है । फल भी नाना प्रकार के हैं । देवताओं के यहॉ इच्‍छानुसार विचरनेवाले दिव्‍य विमान तथा दिव्‍य सभाऍ होती हैं । राजन् ! उनके यहॉ नाना प्रकार के क्रीडास्‍थल तथा सुवर्णमय कमलों से सुशोभित बावलियॉ होती हैं। तात ! वरूण, कुबेर, इन्‍द्र और यमराज – इन चारो लोकपालों, शुक्र, बृहस्‍पति, मरूद्गगण, विश्‍वेदेव, साध्‍य, अश्विनीकुमार, रूद्र, आदित्‍य, वसु तथा अन्‍य देवताओं के जो ऐसे ही लोक हैं, वे सब परमात्‍मा के परमधाम के सामने नर‍क ही हैं। परमात्‍मा का परमधाम विनाशके भय से रहित है; क्‍योंकि वह कारणरहित नित्‍य-सिद्ध है। वह अविद्या अस्मिता,राम, द्वेष और अभिनिवेश नामक पॉच क्‍लेशों से घिरा हुआ नहीं है । उसमे प्रिय और अप्रिय ये दो भाव नही हैं[१]। प्रिय और अप्रिय हेतुभूत तीन गुण-सत्‍व, रज और तम भी नहीं है तथा वह परमधाम भूत, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, उपासना,कर्म, प्राण और अविद्या –इन आठ पुरियों[२] से भी मुक्‍त है । वहॉ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय – इस त्रिपुटी का भी अभाव है। इतना ही नहीं, वह दृष्टि, श्रुति, मति और विज्ञाति-इन चार लक्षणों से रहित है[३]। ज्ञान के कारणभूत प्रत्‍यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्‍द-इन चारों से वह परे है । वहॉ इष्‍ट विषयकी प्राप्ति से होनेवाले हर्ष और उसके भोगजनित आनन्‍द का भी अभाव है । वह शोक और श्रम से भी सर्वथा रहित है। राजन्  ! काल की उत्‍पति भी वहीं से होती है । उस धाम पर कालकी प्रभुता नही चलती । वह परमात्‍मा काल का भी स्‍वामी और स्‍वर्ग का भी ईश्‍वर है। जो आत्‍मकैवल्‍य को प्राप्‍त हो चुका है वही मनुष्‍य वहॉ जाकर शोक से रहित हो जाता है । उस परमधाम का स्‍वरूपऐसा ही है और पहले जो नाना प्रकार के सुख भोगों से सम्‍पन्‍न लोक बताये गये है, वे सभी उसकी तुलना में नरक है। राजन् ! इस प्रकार मैने तुम्‍हें यथार्थरूप ये सभी नरक बताये हैं । उस परमपद के सामने वस्‍तुत: वे सभी लोक ‘नरक’ ही कहलाने योग्‍य हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्व में जापक का उपाख्‍यान विषयक एक सौ अटानबेवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रुति भी कहती है –‘अशरीरं वावसन्‍तं न प्रियाप्रिये स्‍पृशत:।'
  2. आठ पुरियों का बोधक वचन इस प्रकार उपलब्‍ध होता है – भूतेन्द्रियमनोबुद्धिवासनाकर्मवायव:। अविद्या चेत्‍यमुं वर्गमाहु: पुर्यष्‍टकं बुधा:।।
  3. इन लक्षणों का नाम-निर्देश श्रुति में इस प्रकार किया गया है – ‘न दृरूटिर्द्रष्‍टारं पश्‍येर्न श्रुते: श्रोतारं श्रृणुयान्‍न मतेर्मन्‍तारमन्‍वीथा न विज्ञातेर्विज्ञातारं विजानीया:।

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