महाभारत आदि पर्व अध्याय 203 श्लोक 1-17
त्र्यधिकद्विशततम (203) अध्याय: आदि पर्व (विदुरागमन-राज्यलम्भ पर्व )
द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने और बुलाने की सम्मति तथा कर्ण के द्वारा उनकी सम्मति का विरोध करने पर द्रोणाचार्य की फटकार
द्रोणाचार्य ने कहा- राजा धृतराष्ट्र ! सलाह लेने के लिये बुलाये हुए हितैषियों को उचित है कि वे ऐसी बातें कहें, जो धर्म, अर्थ और यश की प्राप्ति करानेवाली हो-यह हम परम्परा से सुनते आये हैं। तात ! मेरी भी वही सम्मति है, जो महात्मा भीष्म की है। कुन्ती के पुत्रों को आधा राज्य बांट देना चाहिये, यही परम्परा से चला आनेवाला धर्म है। भारत ! द्रुपद के पास शीघ्र ही कोई प्रिय वचन बोलने वाला मनुष्य भेजा जाय और वह पाण्डवों के लिये बहुत-से रत्नों की भेंट लेकर जाय। राजा द्रुपद के पास बहू के लिये वर पक्ष की ओर से उसे धन और रत्न लेकर जाना चाहिये। भारत ! उस पुरुष को राजा द्रुपद और धृष्टद्युम्न के सामने बार-बार यह कहना चाहिये कि आपके साथ सम्बन्ध हो जाने से राजा धृतराष्ट्र और दुर्योधन अपना बड़ा अभ्युदय मान रहे हैं और उन्हें इस वैवाहिक सम्बन्ध से बड़ी प्रसन्नता हुई है। इसी प्रकार वह कुन्ती और भाद्री के पुत्रों को सात्वना देते हुए बार-बार इस सम्बन्ध के उचित और प्रिय होने की चर्चा करे। राजेन्द्र ! वह आपकी आज्ञा से द्रौपदी के लिये बहुत से सुन्दर सुवर्णमय आभूषण अर्पित करे। भरतश्रेष्ठ ! द्रुपद के सभी पुत्रों, समस्त पाण्डवों और कुन्ती के लिये भी जो उपर्युक्त आभूषण आदि हों, उन्हें भी वह अर्पित करे। इस प्रकार (उपहार देने के पश्चात)पाण्डवों सहित द्रुपद से सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर अन्त में वह पाण्डवों के हस्तिनापुर में आने के विषय में प्रस्ताव करे। जब द्रुपद की ओर से पाण्डव वीरों को यहां आने की अनुमति मिल जाय, तब एक अच्छी-सी सेना साथ ले दु:शासन और विकर्ण पाण्डवों को यहां ले आने के लिये जायं। यहां आने के पश्चात् वे श्रेष्ठ पाण्डव आपके द्वारा सदा आदर-सत्कार प्राप्त करते हुए प्रजा की इच्छा के अनुसार वे अपने पैतृक राज्य पर प्रतिष्ठित होंगे। भरतवंशी महाराज ! आपको अपने पुत्रों और पाण्डवों के प्रति उपर्युक्त व्यवहार ही करना चाहिये- भीष्मजी के साथ मैं भी यही उचित समझता हूं। कर्ण बोला- महाराज ! भीष्मजी और द्रोणाचार्य को आपकी ओर से सदा धन और सम्मान प्राप्त होता रहता है। इन्हें आप अपना अन्तरंग सुह्रद् समझकर सभी कार्यों में इनकी सलाह लेते हैं। फिर भी यदि ये आपके भले की सलाह न दें तो इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है? जो अपने अन्त:करण के दुर्भाव को छिपाकर, दोषयुक्त ह्रदय से कोई सलाह देता है, वह अपने ऊपर विश्वास करने वाले साधु पुरुषों के अभीष्ट कल्याण को सिद्धि कैसे कर सकता है ? मित्र भी अर्थसंकट के समय अथवा किसी काम की कठिनाई आ पड़ने पर न तो कल्याण कर सकते हैं और न अकल्याण ही । सभी के लिये दु:ख या सुख की प्राप्ति भाग्य के अनुसार ही होती है । मनुष्य बुद्धिमान हो या मुर्ख, बालक हो या वृद्ध तथा सहायकों के साथ हो या असहाय, वह दैवयोग से सर्वत्र सब कुछ पा लेता है । सुना है, पहलें राजगृह में अम्बुबीच नाम से प्रसिद्ध एक राजा राज्य करते थे। वे मागध राजाओं में से एक थे।
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