महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 241 श्लोक 15-20
चत्वारिंशदधिकद्विशततम (241) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘तात ! ज्ञानी मनुष्य कुछ और ही होता है, कर्मासक्त मनुष्य उससे सर्वथा भिन्न है । जैसे चन्द्रमा घटते-घटते अमावास्या को एक सूक्ष्म कला के रूप में ही शेष रह जाता है, यही अवस्था तुम कर्मासक्त मनुष्यों की भी समझो उस क्षय और वृद्धि के ही चक्कर में पडे़ रहना पड़ता है। ‘इस बात को एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि ने विस्तार के साथ बताया है । अमावास्या के बाद आकाश में एक टेढे़ और पहले सूत के समान प्रतीत होने वाले नवोदित चन्द्रमा को देखकर ऐसा ही अनुमान किया जाता है । ‘कर्मजन्य कलाओं के भार को धारण करने वाला कर्मासक्त मनुष्य मन और इन्द्रियरूप ग्यारह विकारों से युक्त होकर जन्म धारणा किया करता है । इस प्रकार वह मूर्तिमान् (देहधारी) व्यक्ति होता है । तुम उसे कर्मफलसम्भूत त्रिगुणात्मक शरीर से युक्त तथा चन्द्रमा के समान वृद्धि और ह्रास का भागी होने वाला समझो। ‘प्राणियों के अन्त:करण (हृदयाकाश) में जो स्वयम्प्रकाश चिन्मय देवता कमल के पत्ते पर पड़ी हुई पानी की बॅूद के समान निर्लेपभाव से विराजमान हैं तथा जिसने योग के द्वारा चित्त को वश में किया है, उस आत्मतत्व को तुम सदैव क्षेत्रज्ञ समझो। ‘तमोगुण, रजोगुण और सत्वगुण इन तीनों को बुद्धि का गुण समझों, इनके सम्बन्ध से जीव गुणस्वरूप और गुण जीवस्वरूप प्रतीत होने लगते हैं । अत: वास्तव में जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है, ऐसा समझो। ‘शरीर स्वयं तो अचेतन (जड़) हैं, परंतु चेतन से युक्त होने से उसे जीवात्मा के गुण चैतन्य से युक्त कहा जाता है। जीवात्मा ही शरीर के द्वारा चेष्टा करता है और वही समस्त शरीर को जीवन (चेतना) प्रदान करता है, परंतु जिस परमात्मा ने सातों भुवनों की सुष्टि की है, उसे क्षेत्रवेत्ता विद्वान् उस जीवात्मा से भी श्रेष्ठ बताते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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