महाभारत स्‍त्री पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-11

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सप्तम (7) अध्याय: स्‍त्रीपर्व (जलप्रदानिक पर्व )

महाभारत: स्‍त्रीपर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


संसार चक्र का वर्णन और रथ के रुपक से संयम और ज्ञान आदि को मुक्ति का उपाय बताना

धृतराष्‍ट्र ने कहा–राजन् ! सुनिये । मैं पुन: विस्‍तारपूर्वक इस मार्ग का वर्णन करता हूँ,जिसे सुनकर बुद्धिमान् पुरुष संसार-बन्‍धन से मुक्त हो जाते हैं । नरेश्वर ! जिस प्रकार किसी लम्‍बे रास्‍ते पर चलने वाला पुरुष परिश्रम से थककर बीच में कहीं-कहीं विश्राम के लिये ठहर जाता है, उसी प्रकार इस संसार यात्रा में चलते हुए अज्ञानी पुरुष विश्राम के लिये गर्भवास किया करते हैं । भारत ! किंतु विद्वान् पुरुष इस संसार से मुक्त हो जाते हैं । इसीलिये शास्त्रज्ञ पुरुषों ने गर्भवास को मार्ग का ही रुपक दिया है और गहन संसार को मनीषी पुरुष वन कहा करते हैं । भरतश्रेष्‍ठ ! यही मनुष्‍यों तथा स्‍थावर-जंगम प्राणियों का संसारचक्र है । विवेकी पुरुष को इस में आसक्त नहीं होना चाहिए । मनुष्‍यों की जो प्रत्‍यक्ष या अप्रत्‍यक्ष शारीरिक और मानसिक व्‍याधियाँ हैं, उन्‍हीं को विद्वानों ने सर्प एवं हिंसक जीव बताया है । भरतनन्‍दन ! अपने कर्म रुपी इन महान् हिंसक जन्‍तुओं से सदा सताये तथा रोके जाने पर भी मन्‍दबुद्धि मानव संसार से उद्विग्‍न या विरक्‍त नहीं होते हैं । नरेश्वर ! यदि शब्‍द, स्‍पर्श, रुप, रस और नाना प्रकार की गन्‍धों से युक्त, मज्जा और मांसरुपी बड़ी भारी कीचड़ से भरे हुए एवं सब ओर से अवलम्‍ब शून्‍य इस शरीर रुपी कूप में रहने वाला मनुष्‍य इन व्‍याधियों से किसी तरह मुक्त हो जाय तो भी अन्‍त में रुप-सौन्‍दर्य का विनाश करने वाली वृद्धावस्‍था तो उसे घेर ही लेती है । वर्, मास, पक्ष, दिन-रात और संध्‍याएँ क्रमश: इसके रुप और आयु का शोषण करती ही रहती हैं । ये सब काल के प्रतिनिधि हैं । मूढ़ मनुष्‍य इन्‍हें इस रुप में नहीं जानते हैं । श्रेष्‍ठ पुरुषों का कथन है कि विधाताने सम्‍पूर्ण भूतों के ललाट में कर्म के अनुसार रेखा खींच दी है (प्रारब्‍ध के अनुसार उनकी आयु और सुख-दु:ख के भोग नियत कर दिये हैं ) । विद्वान् पुरुष कहते हैं कि प्राणियों का शरीर रथ के समान है, सत्व (सत्त्वगुण प्रधान बुद्धि ) सारथि है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं और मन लगाम है । जो पुरुष स्‍वेच्‍छापूर्वक छौड़ते हुए उन घोड़ों के वेग का अनुसरण करता है, वह तो इस संसार चक्र में पहिये के समान घूमता रहता है । किंतु जो संयमशील होकर बुद्धि के द्वारा उन इन्द्रिय रुपी अश्‍वों को काबू में रखते हैं, वे फिर इस संसार में नहीं लौटते । जो लोग चक्र की भाँतिघूमनेवाले इस संसारचक्रमें घूमतेहुए भी मोह के वशीभूत नहीं होते हैं, उन्‍हें फिर संसार में नहीं भटकना पड़ता । राजन् ! संसार में भटकने वालों को यह दु:ख प्राप्‍त होता ही है; अत: विज्ञ पुरुष को इस संसार बन्‍धन की निवृति के लिए अवश्‍य यत्‍न करना चाहिये । इस विषय में कदापि उपेक्षा नहीं करनी चाहिये ; नहीं तो वह संसार सैकड़ों शाखाओं में फैलकर बहुत बड़ा हो जाता है । राजन् ! जो मनुष्‍य जितेन्द्रिय , क्रोध और लोभ से शून्‍य, संतोषी तथा सत्‍यवादी होता है, उसे शान्ति प्राप्‍त होती है । नरेश्वर ! इस संसार को याम्‍य (यमलोक की प्राप्ति कराने वाला) रथ कहते हैं, जिससे मूर्ख मनुष्‍य मोहित हो जाते हैं । राजन् ! जो दु:ख आपको प्राप्‍त हुआ है, वह प्रत्‍येक अज्ञानी पुरुष को उपलब्‍ध होता है ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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