भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-47

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17. वर्णाश्रम-सार

 
5. इत्थं परिमृशन् मुक्तो गृहेष्वतिथिवद् वसन्।
न गृहैरनुबध्येत निर्ममो निरहंकृतः।।
अर्थः
यह सोचकर जीवन-मुक्त पुरुष घर पर अतिथि की तरह रहता है। अपने गृहादि से वह नहीं बँधता, क्योंकि उसके लिए ‘मैं, मेरा’ ऐसा कुछ भी नहीं रहता।
 
6. ज्ञान-निष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वानपेक्षकः।
सलिंगान् आश्रमान् त्यक्त्वा चरेदविधिगोचरः।।
अर्थः
वैराग्यशील, आत्मज्ञाननिष्ठ पुरुष या मेरा निष्काम भक्त विशिष्ट मर्यादा वाले आश्रमों को त्यागकर किसी भी निश्चित विधि-विधान में न फँसते हुए मुक्त संचार करे।
 
7. नोद्विजेत जनाद् धीरो जनं चोद्वेजयेन्न तु।
अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन।।
अर्थः
बुद्धिमान् ( धैर्यवान ) पुरुष लोगों से ऊबे नहीं और न ऐसा व्यवहार करे, जिससे वे ऊब जाएं। अपशब्द और कठोर भाषण सहन करे। किसी का भी अपमान न करे।
 
8. देहमुद्दिश्य पशुवद्द वैरं कुर्यान्न केनचित्।
ऐक ऐव परो ह्यात्मा भूतेष्वात्मन्यवस्थितः।।
अर्थः
जैसे पशु देह के आसक्तिवश दूसरे से वैर करता यानी भय रखता है, वैसे किसी से वैर न करे या भय न रखे। कारण सब प्राणियों में और स्वयं में भी एक ही परमात्मा निवास कर रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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