भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-71

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30. मुक्त विहार

 
1. मया निष्पादितं ह्यत्र देवकार्यं अशेषतः।
यदर्थं अवतीर्णोऽहं अंशेन ब्रह्मणार्थितः।।
अर्थः
ब्रह्माजी की प्रार्थना पर जिस कार्य के लिए मैंने अंश से अवतार लिया था, वह इस लोक का देवों का कार्य मैं संपूर्ण पूरा कर चुका हूँ। (‘अंशेन’ का ‘अंश के साथ’ ऐसा भी अर्थ किया जाता है।)
 
2. त्वं तु सर्वं परित्यज्य स्नेहं स्वजनबंधुषु।
मय्पावेश्य मनः सम्यक् समदृग् विचरस्व गाम्।।
अर्थः
अब तू भी अपने आप्त, आत्मीयजनों का सारा प्रेम छोड़ अनन्य प्रेम से मुझमें अपना मन लगा, सर्वत्र सम-दृष्टि रख और पृथ्वी पर विचरण करता रह।
 
3. ज्ञानविज्ञान-संयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम्।
आत्मानुभव तुष्टात्मा नांतरायैर् विहन्यसे।।
अर्थः
शास्त्रजन्य ज्ञान के साथ अनुभवजन्य विज्ञान का योग हो जाने पर तुझे यह ज्ञान होगा कि ‘सब प्राणियों की आत्मा तू ही है’। फिर तुझे आत्म-साक्षात्कार के कारण समाधान प्राप्त होगा और फिर किन्हीं भी घातक विघ्नों की बाधा न होगी।
 
4. दोषबुद्धयोभयातीतो निषेधान्न निवर्तते।
गुणबुद्ध्या च विहितं न करोति यथाऽर्भकः।।
अर्थः
जो मनुष्य गुण-दोष-बुद्धि से परे हो जाता है- वह निषिद्ध कर्मों से निवृत्त अवश्य होता है, पर उनमें दोष बुद्धि से नहीं। वह विहित कर्मों का अनुष्ठान करता अवश्य है, पर गुण-बुद्धि से नहीं। ये दोनों बातें उसके द्वारा बालक की तरह सहज भाव से हो जाती है।
 
5. सर्वभूत सुहृच्छांतो ज्ञान-विज्ञान-निश्चयः।
पश्यन् मदात्मकं विश्वं न विपद्येत वै पुनः।।
अर्थः
श्रौत ज्ञान और अनुभवजन्य विज्ञान से जिसकी मुझमें अटल श्रद्धा है, वह सब प्राणियों का हितैषी मित्र होता है और उसकी वृत्ति शांत रहती है। यह सब प्रतीत होने वाला विश्व मेरा ही ईश्वर रूप है, ऐसा वह देखता है; इसलिए उसे फिर कभी जन्म-मरण की विपत्ति में नहीं पड़ना पड़ता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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