महाभारत आदि पर्व अध्याय 192 श्लोक 1-13

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द्विनवत्‍यधिकशततम (192) अध्‍याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्विनवत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

धृष्‍टधुम्न के द्वारा द्रौपदी तथा पाण्‍डवों का हाल सुनकर राजा द्रुपद का उनके पास पुरोहित को भेजना तथा पुरोहित और युधिष्ठिरकी बातचीत

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! राजा द्रुपद के यों कहने पर सोमकशिरोमणी राजकुमार धृष्‍टधुम्न अत्‍यन्‍त हर्ष में भरकर वहां जो वृत्‍तान्‍त हुआ था एवं जो कृष्‍णा को ले गया, वह कौन था, वह सब समाचार कहने लगे। धृष्‍टधुम्न बोले- महाराज ! जिन विशाल एवं लाल नेत्रोंवाले, कृष्‍णमृगचर्मधारी तथा देवता के समान मनोहर रुपवाले तरुण वीर ने श्रेष्‍ठ धनुष पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ायी और लक्ष्‍य को वेध कर पृथ्‍वी पर गिराया था, वे किसी का भी साथ न करके अकेले ही बड़े वेग से आगे बढ़े। उस समय बहुत-से श्रेष्‍ठ ब्राह्मण उन्‍हें घेरे हुए थे और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। सम्‍पूर्ण देवताओं तथा ॠषियों से सेवित देवराज इन्‍द्र जैसे दैत्‍यों की सेना के भीतर नि:शक होकर विचरते हैं, उसी प्रकार वे नवयुवक वीर निर्भीक होकर राजाओं के बीच से निकले। उस समय राजकुमारी कृष्‍णा अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न हो उनका मृगचर्म थामकर ठीक उसी तरह उनके पीछे-पीछे जा रही थी, जैसे गजराज के पीछे हथिनी जा रही हो। यह देख लोग सहन न कर सके और क्रोध में भरकर युद्ध करने के लिये उस पर चारों ओर से टूट पड़े। तब एक दूसरा वीर बहुत बड़े वृक्ष को उखाड़कर राजाओं की उस मण्‍डली में कूद पड़ा और जैसे कोप में भरे यमराज समस्‍त प्राणियों का संहार करते हैं, उसी प्रकार वह उन नरेशों को मानो काल के गाल में भेजने लगा। नरेन्‍द्र ! चन्‍द्रमा और सूर्य की भांति‍ प्रकाशित होनेवाले वे दोनों नरश्रेष्‍ठ सब राजाओं के देखते-देखते द्रौपदी को साथ ले नगर से बाहर कुम्‍हार के घर में चले गये। उस घर में अग्निशिखा के समान तेजस्विनी एक स्‍त्री बैठी हुई थीं। मेरा अनुमान है कि उन वीरों की माता रही होगीं। उनके आस-पास अग्नितुल्‍य तेजस्‍वी वैसे ही तीन श्रेष्‍ठ नरवीर और बैठे हुए थे। इन दोनों वीरों ने माता के चरणों में प्रणाम करके द्रौपदी से भी उन्‍हें प्रणाम करने के लिये कहा। प्रणाम करके वहीं खड़ी हुर्इ कृष्‍णा को उन्‍होंने माता को सौंप दिया और स्‍वयं वे नरश्रेष्‍ठ वीर भि‍क्षा लाने के चले गये। जब वे लौटे तब उनकी भिक्षा में मिले हुए अन्‍न को लेकर (उनकी माता के आज्ञानुसार) द्रौपदी ने देवताओं को बलि समर्पित की, ब्राह्मणों को दिया और उन वृद्धा स्‍त्री तथा उन प्रमुख नरवीरों को अलग-अलग भोजन परोसकर अन्‍त में स्‍वंय भी बचे हुए अन्‍न को खाया। राजन् ! भोजन के बाद वे सब सो गये। कृष्‍णा उनके पैरों के समीप सोयी। धरती पर ही उनकी शय्‍या बिछी थी। नीचे कुश की चटाइयां थीं और ऊपर मृगचर्म बिछा हुआ था। सोते समय वे वर्षाकाल के मेघ के समान गम्‍भीर गर्जना करते हुए आपस में बड़ी विचित्र बातें करने लगे। वे पांचों वीर जो बातें कह रहे थे, वे वैश्‍यों, शुद्रों तथा ब्राह्मणों जैसी नहीं थीं। राजन् ! जिस प्रकार वे युद्ध का वर्णन करते थे, उससे यह मान लेने में तनिक भी संदेह नहीं रह जाता कि वे लोग क्षत्रियशिरोमणी हैं। हमने सुना है; कुन्‍ती के पुत्र लाक्षा-गृह की आग में जलने से बच गये हैं। अत: हमारे मन में जो पाण्‍डवों से सम्‍बन्‍ध करने की अभिलाषा थी, अवश्‍य ही सफल हुई जान पड़ती है। जिस प्रकार उन्‍होंने धनुष पर बलपूर्वक प्रत्‍यञ्चा चढ़ायी, जिस तरह दुर्भेद्य लक्ष्‍य को बेध गिराया और जिस प्रकार वे सभी भाई आपस में बातें करते हैं, उससे यह निश्‍चय हो जाता है कि कुन्‍ती के पुत्र ही ब्राह्मणवेश में छिपे हुए विचर रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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