महाभारत आदि पर्व अध्याय 192 श्लोक 14-29

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द्विनवत्‍यधिकशततम (192) अध्‍याय: आदि पर्व (वैवाहिक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्विनवत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद

जनमेजय ! इस समाचार से राजा द्रुपद को बड़ी प्रसन्‍नता हुर्इ, उन्‍होंने उसी समय अपने पुरोहित को भेजते हुए कहा- ‘आप उन लोगों से कहियेगा कि मैं आप लोगों का परिचय जानना चाहता हूं। क्‍या आप लोग महात्‍मा पाण्‍डु के पुत्र हैं ?’ राजा का अनुरोध मानकर पुरोहितजी गये और उन सबकी प्रशंसा करके राजा द्रुपद के वचनों को ठीक-ठीक एक के बाद एक करके क्रमश: कहने लगे। ‘वरदान के योग्‍य वीर पुरुषो ! वर देने में समर्थ पाञ्जालदेश के राजा द्रुपद आप लोगों का परिचय जानना चाहते हैं। इन वीर पुरुष को लक्ष्‍यवेध करते देखकर उन्‍हें हर्ष की सीमा नहीं रह गयी है। ‘आप लोग अपनी जाति और कुल आदि का यथावत् वर्णन करें, शत्रुओं के माथे पर पैर रक्‍खें और मेरे तथा अनुचरों-सहित पाञ्जालराज के ह्रदय को आनन्‍द प्रदान करें। ‘महाराज पाण्‍डु राजा द्रुपद के आत्‍मा के समान प्रिय मित्र थे। इसलिये उनकी यह अभिलाषा थी कि मैं अपनी इस पुत्री का विवाह पाण्‍डुकुमार से करुं। इसे राजा पाण्‍डु को पुत्र-वधू के रुप में समर्पित करुं। सवांग सुन्‍दर शूरवीरों ! राजा द्रुपद के ह्रदय में नित्‍य निरन्‍तर यह कामना रही है कि मोटी एवं विशाल भुजाओं वाले अर्जुन मेरी इस पुत्री का धर्मपूर्वक पाणिग्रहण करें। ‘उनका यह कहना है कि यदि मेरा यह मनोरथ पूर्ण हो जाय, तो मैं समझूंगा कि यह मेरे शुभ कर्मो का फल प्राप्‍त हुआ है। यही मेरे लिये यश, पुण्‍य और हित की यात होगी’। जब विनयशील पुरोहितजी यह बात कह चुके, तब राजा युधिष्ठिर ने उनकी ओर देखकर पास बैठे हुए भीमसेन को यह आज्ञा दी कि इन्‍हें पाद्य और अर्ध्‍य समर्पित करो। ये महाराज द्रुपद के माननीय पुरोहित हैं। अत: इनका हमें विशेष आदर-सत्‍कार करना चाहिये’। जनमेजय ! तब भीमसेन ने पाद्य, अर्व्‍य निवदेन करके उनका विधिवत् पूजन किया। उनकी दी हुर्इ पूजा को प्रसन्‍नतापूर्वक ग्रहण करके पुरोहितजी जब बड़े सुख से आसन पर बैठ गये, तब राजा युधिष्ठिर ने उन ब्राह्मण देवता से इस प्रकार कहा-। ‘ब्रह्मन् ! पाञ्जालराज द्रुपद ने यह कन्‍या अपनी इच्‍छा-से नहीं दी है, उन्‍होंने अपने धर्म के अनुसार लक्ष्‍यवेध की शर्त करके अपनी कन्‍या देने का निश्‍चय किया था। उस वीर पुरुष ने उसी शर्त को पूर्ण करके यह कन्‍या प्राप्‍त की है। ‘राजा ने वहां वर्ण, शील, कुल और गोत्र के विषय में कोई अभि‍प्राय नहीं व्‍यक्‍त किया था। धनुष पर प्रत्‍यञ्चा चढ़ाकर लक्ष्‍यवेध कर देने पर ही कन्‍यादान की घोषणा की थी। इस महात्‍मा वीर ने उसी घोषणा के अनुसार राजाओं की मण्‍डली में राजकुमारी कृष्‍णा पर विजय पायी है। ऐसी दशा में सोमकवंशी राजा द्रुपद अब सुख का अभाव करने वाला संताप नहीं करना चाहिये। ब्राह्मण ! राजा द्रुपद की जो पहले की अभिलाषा है, वह भी पूरी होगी। इस राजकन्‍या को हम सर्वथा ग्रहण करने योग्‍य एवं उत्‍तम मानते हैं। ‘कोई बलहीन पुरुष उस विशाल धनुष पर प्रत्‍यञ्चा नहीं चढ़ा सकता था। जिसने अस्‍त्रविद्या की पूर्ण शिक्षा न पायी हो, पुरुष के अथवा किसी नीच कुल के मनुष्‍य के लिये भी उस लक्ष्‍य को गिराना असम्‍भव था। ‘अत: पाञ्जालराज को अब अपनी पुत्री के लिये पश्‍चाताप करना उचित नहीं है। इस पृथ्‍वी पर उन वीर के सिवा ऐसा कोई मनुष्‍य नहीं हैं, जो उस लक्ष्‍य को वेध सके’। राजा युधिष्ठिर यों कह ही रहे थे कि पाञ्जालराज द्रुपद के पास से एक दूसरा मनुष्‍य यह समाचार देने के लिये शीघ्रतापूर्वक आया कि ‘राजभवन में आप लोगों के लिये भोजन तैयार है’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत वैवाहिक पर्व में पुरोहित युधिष्ठिर संवाद विषयक एक सौ बानवेवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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