महाभारत वन पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-19

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षट्त्रिंश (36) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर का भीमसेन को समझाना, व्यास जी का आगमन और युधिष्ठिर को प्रतिस्मृति विद्या प्रदान तथा पाण्डवों का पुनः काम्यकवनगमन

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! भीमसेन की

बात सुनकर शत्रुओं को संताप देने वाले पुरूषसिंह कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर लम्बीसांस लेकर मन ही मन विचार करने लगे-‘मैंने राजाओं के धर्म एवं वणों के सुनिश्चित सिद्धान्त भी सुने हैं, परन्तु जो भविष्य और वर्तमान दोनों पर दृष्टि रखता है, वही यथार्थदर्शी है। ‘धर्मकी श्रेष्ठ गति अत्यनत दुर्बोध है, उसे जानता हुआ भी मैं कैसे बलपूर्वक मेरू पर्वत के समान महान् उस धर्म का मर्दन करूंगा’। इस प्रकार दो घड़ी तक विचार करने के पश्चात् अपने को क्या करना है, इसका निश्चय करके युधिष्ठिर ने भीमसेन से अविलम्ब यह बात कही। युधिष्ठिर बोले-महाबाहु भरतकुलतिलक वाक्य विशारद भीम ! तुम जैसा कह रहे हो, वैसा ठीक है, तथापि मेरी यह दूसरी बात भी मानो। भरतनन्दन भीमसेन ! जो महान् पापमय कर्म केवल साहस के भरोसे आरम्भ किये जाते हैं, वे सभी कष्टदायक होते हैं। महाबाहो ! अच्छी तरह से सलाह और विचार करके पूरा पराक्रम प्रकट करते हुए सुन्दररूप से जो कार्य किये जाते हैं, वे सफल होते हैं और उसमें दैव भी अनूकुल हो जाता है। तुम स्वयं बल के घमण्ड से उन्मत्त हो जो केवल चपलतावश स्वयं इस युद्धरूपी कार्य को अभी आरम्भ करने के योग्य मान रहे हो, उसके विषय में मेरी बात सुनो। भूरिश्रवा, शल, पराक्रमी जल संघ, भीष्म, द्रोण, कर्ण बलवान् अश्वत्थामा तथा सदा के आततायी दुर्योधन आदि दुर्धर्ष धृतराष्ट्र पुत्र-ये सभी अस्त्र-विद्या के ज्ञाता हैं एवं हमने जिन राजाओं तथा भूमिपालों को युद्ध में कष्ट पहुंचाया है, वे सभी कौरवपक्ष में मिल गये हैं और उधर ही उनका स्नेह हो गया है। भारत ! वे दुर्योधन हित में ही संलग्न होंगे; हमलोगों के प्रति उनका वैसासन्द्धाव नहीं हो सकता। उनका खजाना भरा पूरा है और वे सैनिक शक्ति से भी सम्पन्न हैं, अतः वे युद्ध छिड़ने पर हमारे विरूद्ध ही प्रयत्न करेंगे। मंत्रियों और पुत्रों के सहित कौरवसेना के सभी सैनिकों को दुर्योधन की ओर से पूरे वेतन और सब प्रकार की उपभोग सामग्री का वितरण किया गया है। इतना ही नहीं, दुर्योधन ने उन े‍वीरों का विशेष आदर-सत्कार भी किया है। अतः मेरा यह विश्वास है कि वे उसके लिये संग्राम में (हंसते-हंसते) प्राण दे देंगे। महाबाहो ! यद्यपि पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, तथा महामना कृपाचार्य का आंतरिक स्नेह धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा हम लोगों पर एक-सा ही हैं, तथापि वे राजा दुर्योधन का दिया हुआ अन्न खाते हैं, अतः उसका ऋण अवश्य चुकायेंगे, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। युद्ध छिड़ने पर वे भी दुर्योधन के पक्ष से ही लड़कर अपने दुस्त्यज प्राणों का भी परित्याग कर देंगे। वे सब-के-सब दिव्यास्त्रों के ज्ञाता और धर्मपरायण हैं। मेरी बुद्धि में तो यहां तक आता है कि इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी उन्हें परास्त नहीं कर सकते। उस पक्ष में महारथी कर्ण भी है; जो हमारे प्रति सदा अमर्ष और क्रोध से भरा रहता है। वह सब अस्त्रों का ज्ञाता, अजेय तथा अभेद्य कवच से सुरक्षित है। इन समस्त वीर पुरूषों को युद्ध में परास्त किये बिना तुम अकेले दुर्योधन को नहीं मार सकते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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