महाभारत वन पर्व अध्याय 45 श्लोक 1-16

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पञ्चत्वारिंश (45) अध्‍याय: वन पर्व (इन्द्रलोकाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: पञ्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

उर्वषी का कामपीडि़त होकर अर्जुन के पास जाना और उनके अस्वीकार करने पर उन्हें शाप देकर लौट आना

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! एक समय इन्द्र ने अर्जुन के नेत्र उर्वशी के प्रति आसक्त जानकर चित्रसेन गन्धर्व को बुलाया और प्रथम ही एकान्त में उनसे यह बात कहीं-‘गन्धर्वराज ! तुम मेरे भेजने से आज अप्सराओं में श्रेष्ठ उर्वशी के पास जाओ। पुरूषश्रेष्ठ ! तुम्हें वहां भेजने का उद्देश्य यह है कि उर्वशी अर्जुन की सेवा में उपस्थित हो। ‘जैसे अस्त्रविद्या सीख लेने के पश्चात् अर्जुन को मेरी आज्ञा से तुमने संगीतविद्या द्वारा सम्मानित किया है, उसी प्रकार वे स्त्रीसंगविशारद दो सकें, ऐसा प्रयत्न करो’। इन्द्र के इस प्रकार कहने पर ‘तथास्तु’ कहकर उनसे आज्ञा ले गन्धर्वराज चित्रसेन सुन्दरी अप्सरा उर्वशी के पास गये। उससे मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उर्वशी ने चित्रसेन को आया जान स्वार्गतपूर्वक उनका सत्कार किया। जब वे आराम से बैठ गये, तब सुखपूर्वक सुन्दर आसनपर बैठी हुई उर्वशी से मुसकराकर बोले-‘सुश्रोणि ! तुम्हें मालूम होना चािहये कि स्वर्ग के एकमात्र सम्राट् इन्द्र, जो तुम्हारे कृपाप्रसाद का अभिनन्दन करते हैं, मुझे तुम्हारे पास भेजा है। उन्हीं की आज्ञा से मैं यहां आया हूं। ‘सुन्दरी ! जो अपने स्वाभावित सुवर्ण, श्री, शील (स्वभाव), मनोहर रूप, उत्तम व्रत और इन्द्रियसंयम के कारण देवताओं तथा मनुष्यों में विख्यात हैं। बल और पराक्रम के द्वारा जिनकी सर्वत्र प्रसिद्धि है; जो सबके प्रिय, प्रतिभाशाली, वर्चस्वी, तेजस्वी, क्षमाशील तथा ईष्र्यारहित हैं, जिन्होंने छहों अंगोंसहित चारों वेदों, उपनिषदों और पंचम वेद (इतिहास पुराण) का अध्ययन किया है। जिन्हें गुरूशुश्रूवा तथा आठ गुणों से युक्त मेघा शक्ति प्राप्त है, जो ब्रह्मचर्यपालन, कार्य-दक्षता, संतान और युवावस्था के द्वारा अकेले ही देवराज इन्द्र की भांति स्वर्गलोक की रक्षा करने में समर्थ हैं, जो अपने मुंह से अपने गुणों की कभी प्रशंसा नहीं करते, दूसरों को सम्मान देते, अत्यन्त सूक्ष्म विषय को भी स्थूल की भांति शीघ्र ही समझ लेते और सबसे प्रिय वचन बोलते हैं, जो अपने सुहृदों के लिये नाना प्रकार के अन्न-पान की वर्षा करते और सदा सत्य बोलते हैं, जिसका सर्वत्र आदर होता है, जो अच्छे वक्ता तथा मनोहर रूपवाले होकर भी अहंकारशून्य हैं, जिनके हृदय में अपने प्रेमी भक्तो के लिये अत्यन्त कृपा भरी हुई है, जो कांतिमान्, प्रिय और प्रतिज्ञापालन एवं युद्ध में स्थिरतापूर्वक डटे रहनेवाले हैं, जिसके सद्गुणों की दूसरे लोग स्पृहा रखते हैं और उन्हीं गुणों के कारण जो महेन्द्र और वरूण के समान आदरणीय माने जाते हैं, उन वीरवर अर्जुन को तुम अच्छी तरह जानती हो। उन्हें स्वर्ग में आने का फल अवश्य मिलना चाहिये। तुम देवराज के आज्ञा के अनुसार आज अर्जुन के चरणों के समीप जाओ। कल्याणि ! तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे कुन्तीकुमार धनंजय तुम पर प्रसन्न हों। चित्रसेन के ऐसा कहने पर उर्वशी के अधरोंपर मुसकान दौड़ गयी। उसने इस आदेश को अपने लिये बड़ा सम्मान समझा। अनिन्द्य सुन्दरी उर्वशी उस समय अत्यन्त प्रसन्न होकर चित्रसेन से इस प्रकार बोली- ‘गन्धर्वराज ! तुमने जो अर्जुन के लेशमात्र गुणों का मेरे सामने वर्णन किया है, वह सब सत्य है। मैं दूसरे लोगों के मुख से भी उनकी प्रशंसा सुनकर उनके लिये व्यथित हो उठी हूं। अतः इससे अधिक मैं अर्जुन का क्या वरण करूं ? ‘महेन्द्र की आज्ञा से, तुम्हारे प्रेमपूर्ण बर्ताव से तथा अर्जुन के सद्गुण-समुदाय से मेरा उनके प्रति कामभव हो गया है। अतः अब तुम जाओ। मैं इच्छानुसार सुखपूर्वक उनके स्थान पर यथासमय आऊंगी’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत इन्द्रलोकभिगमन पर्व में चित्रसेन-उर्वशीसंवादविषयक पैतालिसवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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