महाभारत वन पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-17

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सप्तपञ्चाशत्तम (57) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

स्वयंवर में दमयन्ती द्वारा नल का वरण, देवताओं का नल को वर देना, देवताओं और राजाओं का प्रस्थान, नल-दमयन्ती का विवाह एवं नल का यज्ञानुष्ठान और संतानोत्पादन

बृहदश्व मुनि कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर शुभ समय, उत्तम तिथि तथा पुण्यदायक अवसर आने पर राजा भीम ने समस्त भूपालों को स्वयंवर के लिये बुलाया। यह सुनकर सब भूपाल कामपीडि़त हो दमयन्ती को पाने की इच्छा से तुरन्त चल दिये। रंगमण्डप सोने के खम्भों से सुशोभित था। तोरण से उसकी शोभा और बढ़ गयी थी। जैसे-जैसे बडे़-बड़े सिंह पर्वत की गुफा में प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार उन नरेशों ने रंगमण्डप में प्रवेश किया। वहां सब भूपाल भिन्न-भिन्न आसनों पर बैठ गये। सबने सुगन्धित फूलों की माला धारण कर रक्खी थी और सबके कानों में विशुद्ध मणिमय कुण्डल झिलमिला रहे थे। व्याघ्रों से भरी हुई पर्वत गुफा तथा नागों से सुशोभित भोगवती पुरी की भांति वह पुण्यमयी राजसभा नरश्रेष्ठ भूपालों भरी दिखायी देती थी। वहां भूमिपालों की (पांच अंगुलियों से युक्त) परिघ-जैसी मोटी भुजाएं आकार-प्रकार और रंग में अत्यन्त सुन्दर तथा पांच मस्तकवाले सर्प के समान दिखायी देती थीं। जैसे आकाश में तारे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार सुन्दर केशांत भाग से विभूषित एवं रूचिर नासिका, नेत्र और भौहों से युक्त राजाओं के मनोहर सुख सुशोभित हो रहे थे। तदनन्तर अपनी प्रभा से राजाओं के नयनों को लुभाती और चित्त को चुराती हुई सुन्दर मुखवाली दमयन्ती ने रंगभूमि में प्रवेश किया। वहां आते ही दमयन्ती के अंगोंपर उस महामना नरेशों की दृष्टि पड़ी। उसे देखनेवाले राजाओं में से जिसकी दृष्टि दमयन्ती के जिस अंग पर पड़ी, वही लग गयी, वहां से हट न सकी। भारत ! तत्पश्चात् राजाओं के नाम, रूप, यश और पराक्रम आदि का परिचय दिया जाने लगा। भीमकुमारी दमयन्ती ने आगे बढ़कर देखा, यहां तो एक जगत पांच पुरूष एक ही आकृति के बैठे हुए हैं। उन सबके रूप-रंग आदि में कोई अन्तर नहीं था। वे पांचों नल के ही समान दिखायी देते थे। उन्हें एक जगह स्थित देखकर संदेह उत्पन्न हो जाने से विदर्भराजकुमारी वास्तविक राजा नल को पहचान न सकी। वह उनमें से जिस-जिस व्यक्ति पर दृष्टि डालती, उसी-उसी को राजा नल समझने लगती थी। वह भाविनी राजकन्या बुद्धि से सोच-विचारकर मन-ही-मन तर्क करने लगी। अहो ! मैं कैसे देवताओं को जानूं और किस प्रकार राजा नल को पहचानू।’ इस चिंता में पड़कर विदर्भराजकुमारी दमयन्ती को बड़ा दुःख हुआ। भारत ! उसने अपने सुने हुए देवचिन्हों पर भी विचार किया। वह मन-ही-मन कहने लगी, मैंने बडे़-बुढे़ पुरूषों से देवताओं की पहचान कराने वाले जो लक्षण या चिह्र सुन रक्खे हैं, उन्हें यहां भूमि पर बैठे हुए इन पांच पुरूषों में से किसी एक में भी नहीं देख पाती हूं।’ उसने अनेक प्रकार से निश्चय और बार-बार विचार करके देवताओं की शरण में जाना ही समयोचित कर्तव्य समझा। तत्पश्चात् मन एवं वाणीद्वारा देवताओं को नमस्कार करके दोनों हाथ जोड़कर कांपती हुई वह इस प्रकार बोली-‘मैंने हंसों की बात सुनकर निषधनरेश नल का पतिरूप में वरण कर लिया है। इस सत्य के प्रभाव से देवता पतिरूप में वरण कर लिया है।इस सत्य के प्रभाव से देवता लोग स्वयं ही मुझे राजा नल की पहचान करा दें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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