महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 240 श्लोक 31-36
चत्वारिंशदधिकद्विशततम (240) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
कुछ लाभ होने पर हर्ष से फूल न उठे और न होने पर चिन्ता न करे । समस्त प्राणियों के प्रति समान दृष्टि रखे । वायु के समान सर्वत्र विचरता हुआ भी असंग और अनिकेत रहे । इस प्रकार स्वस्थचित्त और सर्वत्र समदर्शी रहकर कर्मफल का उल्लघंन करके छ: महीने तक नित्य योगाभ्यास करने वाला श्रेष्ठ योगी वेदोक्त परब्रह्मा परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है । प्रजा को धन की प्राप्ति के लिये वेदना से पीड़ित देख धन की ओर से विरक्त हो जाय– मिटटी के ढेले, पत्थर तथा स्वर्ण को समान समझे । विरक्त पुरूष इस योगमार्ग से न तो विरत हो और न मोह में पडे़ । कोई नीच वर्ण का पुरूष और स्त्री ही क्यों न हो, यदि उनके मन में धर्मसम्पादन की अभिलाषा है तो इस योगमार्ग का सेवन करने उन्हें भी परमगति की प्राप्ति हो सकती है । जिसने अपने मन को वश में कर लिया है वही योगी निश्चल मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा जिसकी उपलब्धि होती है, उस अजन्मा, पुरातन, अजर, सनातन, नित्यमुक्त, अणु से भी महान परमात्मा का आत्मा से अनुभव करता है । महर्षि महात्मा व्यास के यथावद् रूप से कहे गये इस उपदेश वाक्य पर मन ही मन विचार करके एवं इसको भली-भॉति समझकर जो इसके अनुसार आचरण करते हैं, वे मनीषी पुरूष ब्रह्माजी की समानता को प्राप्त होते हैं और प्रलयकाल पर्यन्त ब्रह्मालोक में ब्रह्माजी के साथ रहकर अन्त में उन्हीं के साथ मुक्त हो जाते हैं । इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में शुक्रदेव का अनुप्रश्न विषयक दो सौ चालीसवॉ अध्याोय पूरा हुआ ।
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