महाभारत वन पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-17

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सप्ततितम (70) अध्‍याय: वन पर्व (नलोपाख्यान पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

पर्णाद का दमयन्ती से बाहुकरूपधारी नल का समाचार बताना और दमयन्ती का ऋ़तुपर्ण के यहां सुदेव नामक ब्राह्मण को स्वयंवर का संदेष देकर भेजना

बृहदश्व मुनि कहते हैं-राजन् ! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् पर्णादनामक ब्राह्मण विदर्भदेश की राजधानी में लौटकर आये और दमयन्ती से इस प्रकार बोले- ‘दमयन्ती ! मैं निषधनरेश को ढूंढ़ता हुआ अयोध्या नगरी में गया और वहां राजा ऋतुपर्ण के दरबार में उपस्थित हुआ। ‘वहां बहुत लोगों की भीड़ में मैंने तुम्हारा वाक्य महाभाग ऋतुपर्ण को सुनाया। वरवर्णिनि ! उस बात को सुनकर राजा ऋतुपर्ण कुछ न बोले। मेरे बार-बार कहने पर भी उनका कोई सभासद् भी इसका उत्तर न दे सका। ‘परन्तु ऋतुपर्ण के यहां बाहुक नामधारी एक पुरूष है, उसने जब मैं राजा से विदा लेकर लौटने लगा, तब मुझसे एकान्त में आकर तुम्हारी बातों का उत्तर दिया। ‘यह महाराज ऋतुपर्ण का सारथि है। उसकी भुजाएं छोटी हैं तथा वे देखने में कुरूप भी है। वह घोड़ों को शीघ्र हांकने में कुशल है और अपने बनाये हुए भोजन में बड़ा मिठास उत्पन्न करता है। ‘बाहुकने बार-बार लम्बी सांसें खींचकर अनेक बार रोदन किया और मुझसे कुशल-समाचार पुछकर फिर वह एक प्रकार कहने लगा- ‘उत्तम कुल की स्त्रियां बड़े भारी संकट में पड़कर भी स्वयं अपनी रक्षा करती है। ऐसा करके वे सत्य और स्वर्ग दोनों पर विजय पा लेती हैं, इसमें संशय नहीं है। ‘श्रेष्ठ नारियां अपने पतियों से परित्यक्त होने पर भी कभी क्रोध नहीं करतीं। वे सदाचारणी कवच से आवृत प्राणों को धारण करती हैं। वह पुरूष बड़े संकट मे था, सुख वे साधनों से वंचित होकर किकर्तव्यविमूढ हो गया था। ऐसी दशा में यदि उसने अपनी पत्नी का परित्याग किया है तो इसके लिये पत्नी को उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये। ‘जीविका पाने के लिये चेष्टा करते समय पक्षियों ने जिसके वस्त्र का अपहरण कर लिया था। और जो अनेक प्रकार की मानसिक चिन्ताओं से दग्ध हो रहा था, उस पुरूषपर श्यामा को क्रोध नहीं करना चािहये। ‘पति ने उसका सत्कार किया हो या असत्कार-उसे चाहिये कि पति को वैसे संकट में पड़ा देखकर उसे क्षमा कर दे; क्योंकि वह राज्य और लक्ष्मी से वंचित हो भूख से पीडि़त एवं विपत्ति के अथाह सागर में डूबा हुआ था। ‘बाहुक की यह बात सुनकर मैं तुरन्त यहां चला आया। यह सुनकर अब कर्तव्याकर्तव्य के निर्णय में तुम्ही प्रमाण हो। (तुम्हारी इच्छा हो तो) महाराज को भी ये बातें सूचित कर दो’। युधिष्ठिर ! पर्णादका यह कथन सुनकर दमयन्ती के नेत्रों में आंसू भर आया। उसने एकान्त में जाकर अपनी माता से कहा-‘मां ! पिताजी को यह बात कदापि मालूम न होनी चाहिये। मैं तुम्हारे ही सामने विप्रवर सुदेव को इस कार्य में लगाऊंगी। तुम ऐसी चेष्टा करो, जिससे पिताजी को मेरा विचार ज्ञात न हो। यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहती हो तो तुम्हें इसके लिये सचेष्ट रहना होगा। ‘जैसे सुदेव मुझे यहां लाकर बन्धु-बान्धवों से मिला दिया, उसी मंगलमय उद्देश्य की सिद्धि के लिये सुदेव ब्राह्मण फिर शीघ्र ही यहां जायं, देर न करें। मां ! वहां जाने का उद्देश्य है, महाराज नल को यहां ले आना’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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