महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 27 श्लोक 12-22
सप्तविंश (27) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
कुन्तीनन्दन! इस शरीर के रहते हुए ही कोई भी सत्कर्म किया जा सकता है। मरने के बाद कोई कार्य नहीं किया जा सकता। आपने तो परलोक में सुख देने वाला महान् पुण्यकर्म किया है, जिसकी साधु पुरूषों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। (पुण्यत्मा) मनुष्य (स्वर्गलोक में जाकर) मृत्यु, बुढा़पा तथा भय त्याग देता है। वहां उसे मन के प्रतिकुल भूख-प्यास का कष्ट भी नहीं सहन करना पड़ता है। परलोक में इन्द्रियों को सुख पहुंचाने के सिवा दूसरा कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है।[१] नरेन्द्र! इस प्रकार हृदय को प्रिय लगने वाले विषय से कर्मफल की प्रार्थना नहीं करनी चाहिये। पाण्डुनन्दन! आप क्रोधजनित नरक और हर्षजनित सवर्ग- इन दोनों लोकों में कभी न जायं (; अपितु सनातन मोक्ष-सुख के लिये निष्काम कर्म अथवा ज्ञानयोग का ही साधन करें)। इस तरह (ज्ञानग्नि द्वारा) कर्मों को दग्ध करके सत्य, दम, आर्जव (सरलता) तथा अनृशंसता (दया) इन सद्गुणों का कभी त्याग न करें। अश्रवमेंध, राजसूय और अन्य यज्ञों को भी न छोडे़, परंतु युद्ध-जैसे पापकर्म के निकट फिर कभी न जायं। कुन्तीकुमारी! यदि आप लोगों को राज्य के लिये चिरस्थायी विद्वेष के रूप में युद्ध रूप पापकर्म ही करना है, तब तो मैं यही कहूंगा कि आप बहुत वर्षों तक दु:खमय वनवास का ही कष्ट भोगते रहें।
पाण्डवों वह वनवास ही आपके लिये धर्मरूप होगा। पहले (द्यूतक्रीड़ा के समय ही) हम लोग बलपूर्वक इन्हें अपने वश में रखकर वन में गये बिना ही यहां रह सकते थे; क्योंकि आज जो सेना एकत्र हुई है, यह पहले भी अपने ही लोगों के अधीन थी और ये भगवान् श्रीकृष्ण तथा वीरवर सार्त्या के सदा से ही आप लोगों के (प्रेम के कारण) वशीभूत एवं आपके सहायक रहे हैं। प्रहार करने में कुशल वीर सैनिकों तथा पुत्रों के साथ सुवर्णमय रथ से सुशोभित मत्स्य देश के राजा विराट तथा दूसरे भी बहुत से नरेश, जिन्हें पहले आप लोगों ने युद्ध में जीता था, वे सबके सब संतान में आपका ही पक्ष लेते। उस समय आप महान् सहायकों से सम्पन्न और बलशाली थे, आप श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के आगे-आगे चलकर शत्रुओं पर आक्रमण कर सकते थे। समराङ्गण में अपने महान् शत्रुओं का संहार करते हुए आप दुर्योधन के घमंड को चूर-चूर कर सकते थे। पाण्डुनन्दन! फिर क्या कारण है कि आपने शत्रु की शक्ति को बढ़ने का अवसर दिया? किसलिये अपने सहायकों को दुर्बल बनाया और क्यों बारह वर्षों तक वन में निवास किया? फिर आज जब वह अनुकूल अवसर बीत चुका है, आपको युद्ध करने की इच्छा क्यों हुई है? पाण्डुनन्दन! अज्ञानी अथवा पापी मनुष्य भी युद्ध करके सम्पत्ति प्राप्त कर लेता है और बुद्धिमान अथवा धर्मज्ञ पुरूष भी दैवी बाधा के कारण पराजित होकर ऐश्वर्य से हाथ धो बैठता है। कुन्तीनन्दन! आपकी बुद्धि कभी अधर्म में नहीं लगती तथा आपने क्रोध में आकर भी कभी पाप कर्म नहीं किया है, तो बताइये, कौन-सा ऐसा (प्रबल) कारण है, जिसके लिये अब आप अपनी बुद्धि के विरूद्ध यह युद्ध-जैसा पापकर्म करना चाहते हैं?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देवयोनि भोगयोनि है, कर्मयोनि नहीं। उसमें नवीन कर्म करने के लिये देवता बाध्य नहीं हैं।