महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 28 श्लोक 1-7
अष्टाविंश (28) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
संजय को युधिष्ठिर का उत्तर
युधिष्ठिर बोले-संजय ! सब प्रकार के कर्मो में धर्म ही श्रेष्ठ है। यह जो तुमने कहा है, वह बिलकुल ठीक है। इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं है; परंतु मैं धर्म कर रहा हूं या अधर्म, इस बात को पहले अच्छी तरह जान लो; फिर मेरी निंदा करना ।।१।। कहीं तो अधम्र ही धर्म का रूप धारण कर लेता है, कहीं पूर्णतया धर्म ही अधर्म दिखायी देता है तथा कहीं धर्म अपने वास्तविक स्वरूप को ही धारण किये रहता है। विद्वान् पुरूष अपनी बुद्धि से विचार करके उसके असली रूप को देख और समझ लेते हैं ।।२।। इस प्रकार जो यह विभिन्न वर्णों का अपना-अपना लक्षण (लिङ्ग) (जैसे ब्राह्मण के लिये अध्ययनाध्यापन आदि, क्षत्रिय के लिये शौर्य आदि तथा वैश्य के लिये कृषि आदि) है, वह ठीक उसी प्रकार उस-उस वर्ण के लिये धर्मरूप है और वही दूसरे वर्ण के लिये अधर्मरूप है। इस प्रकार यद्यपि धर्म और अधर्म सदा सुनिश्र्चितिरूप से रहते हैं तथापि आपत्तिकाल में वे दूसरे वर्ण के लक्षण को भी अपना लेते है। प्रथम वर्ण ब्राह्मण का जो विशेष लक्षण (याजन और अध्यापन आदि) है, वह उसी के लिये प्रमाणभूत है (क्षत्रिय आदि को आपत्तिकाल में भी याजन और अध्यापन आदि का आश्रय नहीं लेना चाहिये)। संजय! आपद्धर्मका क्या स्वरूप है, उसे तुम (शास्त्र के वचनोद्वारा) जानो। प्रकृति (जीविका के साधन) का सर्वथा लोप हो जानेपर जिस वृत्ति का आश्रय लेने से (जीवने की रक्षा एवं) सत्कर्मो का अनुष्ठान हो सके, जीविकाहीन पुरूष उसे अवश्य अपनानेकी इच्छा करे। संजय! जो प्रकृतिस्थ (स्वाभाविक स्थिति में स्थित) होकर भी आपद्धर्मका आश्रय लेता है, वह (अपनी लोभवृति के कारण) निंदनीय होता है तथा जो आपत्तिग्रस्त होने पर भी (उस समय के अनुरूप शास्त्रोक्त साधन को अपनाकर) जीविका नहीं चलाता है, वह (जीवन और कुटुम्ब की रक्षा न करने के कारण) गर्हणीय होता है। इस प्रकार ये दोनों तरह के लोग निंदा के पात्र होते हैं। सूत! (जीविका का मुख्य साधन न होनेपर) ब्राह्मणों का नाश न हो जाय, ऐसी इच्छा रखने वाले विधाता ने जो (उनके लिये अन्य वर्णों की वृत्ति से जीविका चलाकर अन्त में) प्रयश्र्चित करने का विधान किया है, उसपर दृष्टिपात करो। फिर यदि हम आपत्तिकाल में भी (स्वभाविक) कर्मों में ही लगे हों और आपत्तिकाल न होने पर भी अपने वर्ण के विपरीत कर्मों में स्थित हो रहे हों तो उस दशा में हमें देखकर तुम (अवश्य) हमारी निंदा करो। मनीषी पुरूषों को सत्व आदि के बंधन से मुक्त होने के लिये सदा ही सत्पुरूषों का आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये, यह उनके लिये शास्त्रीय विधान है। पंरतु जो ब्राह्मण नहीं है तथा जिनकी ब्रह्मविद्या में निष्ठा नहीं है, उन सबके लिये सबके समीप अपने धर्म के अनुसार ही जीविका चलानी चाहिये। यज्ञ की इच्छा रखने वाले मेरे पूर्व पिता-पितामह आदि तथा उनके भी पूर्वज उसी मार्गपर चलते रहे (जिसकी मैंने ऊपर चर्चा की है) तथा जो कर्म करते हैं, वे भी उसी मार्ग से चलते आये हैं। मैं भी नास्तिक नहीं हूं, इसलिये उसी मार्ग पर चलता हूं; उसके सिवा दूसरे मार्ग पर विश्र्वास नहीं रखता हूं।
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