महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 34 श्लोक 36-52
चतुस्त्रिंश (34) अधयाय: उद्योग पर्व (संजययान पर्व)
जो धातु बिना गरम किये मुड़ जाते हैं, उन्हें आग में नहीं तपाते। जो काठ स्वयं झुका होता है, उसे कोई झुकाने का प्रयत्न नहीं करता। इस दृष्टांत के अनुसार बुद्धिमान् पुरूष को अधिक बलवान् के सामने झुक जाना चाहिये; जो अधिक बलवान् के सामने झुकता है, व मानो इन्द्र को प्रणाम करता है। पशुओं के रक्षक या स्वामी हैं बादल, राजाओं के सहायक हैं,मंत्री,स्त्रियों के बंधु (रक्षक) हैं पति और ब्राह्मणों के बान्धव हैं वेद। सत्य से धर्म की रक्षा होती है, योग से विद्या सुरक्षित होती है, सफाई से (सुंदर) रूप की रक्षा होती है और सदाचार-से कुल की रक्षा होती है। भलीभांति संभालकर रखने से नाज की रक्षा होती है, फेरने से घोड़े सुरक्षित रहते हैं, बांरबार देख-भाल करने से गौओं की तथा मैले वस्त्रों से स्त्रियों की रक्षा होती है। मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्य का केवल ऊंचा कुल मान्य नहीं हो सकता; क्योंकि नीच कुल में उत्पन्न मनुष्य का भी सदाचार श्रेष्ठ माना जाता है। जो दूसरोंके धन, रूप, पराक्रम, कुलीनता, सुख, सौभाग्य और सम्मानपर डाह करता है, उसका यह रोग असाध्य है। न करने योग्य काम करने से, करने योग्य काम में प्रमाद करने से तथा कार्यसिद्धि होने के पहले ही मन्त्र प्रकट हो जाने से डरना चाहिये और जिससे नशा चढ़े, ऐसी मादक वस्तु नहीं पीनी चाहिये। विद्या का मद, धन का मद और तीसरा ऊंचे कुल का मद है। ये घमंडी पुरूषों के लिये तो मद हैं, परंतु ये (विद्या, धन और कुलीनता) ही सज्जन पुरूषों के लिये दम के साधन हैं। कभी किसी कार्य में सज्जनों द्वारा प्रार्थित होने पर दुष्टालोग अपने को प्रसिद्ध दुष्ट जानते हुए भी सज्जन मानने लगते हैं। मनस्वी पुरूषों को सहारा देने वाले संत हैं; संतों के भी सहारे संत ही है, दुष्टों को भी सहारा देने वाले संत हैं, पर दुष्टलोग संतो को सहारा नहीं देते। अच्छे वस्त्रवाला सभा को जीतता (अपना प्रभाव जमा लेता) है; जिसके पास गौ है, वह (दूध, घी, मक्खन, खोवा आदि पदार्थों के आस्वादन से) मीठे स्वाद की आकाङ्क्ष्ाको जीत लेता है, सवारी से चलने वाला मार्ग को जीत लेता (तय कर लेता) है और शीलस्वभाव वाला पुरूष सबपर विजय पा लेता है। पुरूष में शील ही प्रधान है; जिसका वही नष्ट हो जाता है, इस संसार में उसका जीवन, धन और बंधुओं से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। भरतश्रेष्ठ! धनोन्मत्त (तामस स्वभाव वाले) पुरूषों के भोजन में मांस की, मध्यम श्रेणीवालों के भोजन में गोरस की तथा दरिद्र के भोजन में तेल की प्रधानता होती है। दरिद्र पुरूष सदा स्वादिष्ट भोजन ही करते हैं; क्योंकि भूख उनके भोजन में (विशेष) स्वाद उत्पन्न कर देती है और वह भूख धनियों के लिये सर्वथा दुर्लभ है। राजन्! संसार में धनियों को प्राय: भोजन को पचानेकी शक्ति नहीं होती, किंतु दरिद्रों के पेट में काठ भी पच जाते हैं। अधम पुरूषों को जीविका न होने से भय लगता है, मध्यम श्रेणी के मनुष्यों को मृत्यु से भय होता है; परंतु उत्तम पुरूषों को अपमान से ही महान् भय होता है।
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