महाभारत वन पर्व अध्याय 146 श्लोक 21-38

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षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद

शत्रुदमन भीमसेनने उस समय पूर्वोक्त पुष्पकी प्राप्ति के लिये एक बार यक्ष, गन्धर्व, देवता और ब्रह्मार्षियों सेवित उस विशाल पर्वतपर सब ओर दृष्टिपात किया। उस समय अनेक धातुओंसे रंगे हुए सप्तपर्ण छितवन के पतोंद्वारा उनके ललाटमें विभिन्न धातुओंके काले, पीले और सफेद रंग लग गये थे, जिससे ऐसा जान पड़ता था, मानो अंगुलियोंद्वारा त्रिपुण्ड चन्दन लगाया गया हो। उस पर्वत-शिखरके उभय पार्वमें लगे हुए मेघोंसे उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो वह पुनः पंखधारी होकर नृत्य कर रहा है। निरन्तर झरनेवाले झरनोंके जल उस पहाड़ोंके कण्ठदेशमें अवलम्बित मोतियोंके हार-से प्रतीत हो रहे थे। उस पर्वतकी गुफा, कुंज, निर्झर, सलिल और कन्दराएं सभी मनोहर थे। वहां अप्सराओं ने नूपुरोंकी मधुर ध्वनिके साथ सुन्दर मोर नाच रहे थे। उस पर्वतके एक-एक-रत्न और शिलाखण्डपर दिग्गजोंके दांतोकी रगड़का चिह्न अंकित था। निम्नगामिनी नदियोंसे निकला हुआ क्षोभरहित जल नीचेकी ओर इस प्रकार बह रहा था, मानो उस पर्वतका वस्त्र खिसककर गिरा जाता हो। भयसे अपरिचित और स्वस्थ हरिण मुंहमें हरे घासका कौर लिये पास ही खड़े होकर भीमसेनकी ओर कौतूहलभरी दृष्टिसे देख रहे थे। उस समय मनोहर नेत्रोंवाले शोभाशाली वायुपुत्र भीम अपने महान् वेगसे अनेक लतासमूहोंको विचलित करते हुए हर्शपूर्ण हदयसे खेल-सा करते जा रहे थे। वे अपनी प्रिय द्रौपदीका प्रिय मनोरथ पूर्ण करनेको सर्वथा उद्यत थे। उनकी कद बहुत उंची थी। शरीरका रंग स्वर्ण-सा दमक रहा था। उनके सम्पूर्ण अंग सिंहके समान सुदृढ़ थे। उन्होंने युवावस्थामें पदार्पण किया था। वे मतवाले हाथीके समान मस्तानी चालसे चलते थे। उनका वेग मदोन्मत गजराजके समान था। मतवाले हाथीके समान ही उनकी लाल-लाल आंखे थीं। वे समरभूमिमें मदोन्मत हाथियोंको भी पीछे हटानेमें समर्थ थे। अपने प्रियतमके पार्ष्‍वभागमें बैठी हुई यक्ष और गन्धर्वकी युवतियां सब प्रकारी चेष्टाओंसे निवृत हो स्वयं अलक्षित रहकर भीमसेनकी ओर देख रही थीं। वे उन्हें सौन्दर्यके नूतन अवतार-से प्रतीत होते थे। इस प्रकार पाण्डुनन्दन भीम गन्धमादनके रमणीय शिखरोंपर खेल-सा करते हुए विचरने लगे। वे दुर्योधनद्वारा दिये गये नाना प्रकार के अंसख्य क्लेशोंका स्मरण करते हुए वनवासिनी द्रौपदीका प्रिय करनेके लिये उद्यत हुए थे। उन्होंने मन-ही-मन सोचा-'अर्जुन स्वर्गलोकमें चले गये हैं और मैं फूल लेनेके लिये इधर चला आया हूं। ऐसी दशामें आर्य युधिष्ठिर कोई कार्य कैसे करेंगे ? नरश्रेष्ठ महाराज युधिष्ठिर नकुल और सहदेवपर अत्यन्त स्नेह रखते हैं। उन दोनोंके बलपर उन्हें विष्वास नहीं है। अतः वे निष्चय ही उन्हें नहीं छोड़ेगे, अर्थात् कहीं नहीं भेजेंगे। अब कैसे मुझे शीघ्र वह फूल प्राप्त हो जाय-यह चिन्ता करते हुए नरश्रेष्ठ भीम पक्षिराज गरूड़के समान वेगसे आगे बढ़े। उनके मन और नेत्र फूलोंसे भरे हुए पर्वतीय शिखरोंपर लगे हुए थे। द्रौपदीका अनुरोधपूर्ण वचन ही उनका पाथेय मार्गका कलेवा था, वे उसीको लेकर शीघ्रतापूर्वक चले जा रहे थे। वायुके समान वेगशाली वृकोदर पर्वकालमें होनेवाले उत्पात भूकम्प और बिजली गिरने के समान अपने पैरोंकी धमकसे पृथ्वीको कम्पित और हाथियोंके समूहोंको आतंकित करते हुए चलने लगे। वे महाबली कुन्तीकुमान सिंहो, व्याघ्रों और मृगोंको कुचलते तथा अपने वेग से बड़े-बड़े वृक्षोंको जड़से उखाड़ते और विनाश करते हुए आगे बढ़ने लगे। पाण्डुनन्दन भीम अपने वेगसे लताओं और बल्लरियोंको खींचे लिये जाते थे। वे उपर-उपर जाते हुए ऐसे प्रतीत होते थे, मानो कोई गजराज पर्वतकी सबसे उंची चोटीपर चढ़ना चाहता हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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